श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
23. उपालम्भ-लीला
अधिकाधिक रस-पान के लिये आकुल व्रजपुरन्ध्रियाों को श्रीकृष्णचन्द्र के विविध कौमारचापल्य की रस तंरगिणी में निमज्जित कर देने के लिये ही तो सोलह पहर का विलम्ब हुआ है। जो हो, निशा आयी एवं निशा का अवसान भी हुआ। किंतु गोपसुन्दरियाँ तो सारी रात जागती ही रहीं। उन्हें निद्रा आयी ही नहीं। यदि किसी को क्षणभर के लिये तन्द्रा-सी हुई तो उसने केवलमान उलाहने का ही स्वप्न देखा। प्रातः समीर का स्पर्श पाते ही सब उठ खड़ी हुईं। आवश्यक कर्म से निवृत्त हो, विविध मनोहर श्रृंगार से सज्जित होकर, दिनभर के लिये गृह का सारा भार गृहस्वामी पर सौंपकर दल-की-दल नन्दप्रासाद की ओर चल पड़ीं। इधर व्रजरानी श्रीकृष्णचन्द्र को गोद में लिये स्वर्ण सिंहासन पर विराजित हैं। कलेवा करके श्रीकृष्णचन्द्र आज खेलने बाहर नहीं गये। जननी के अंक में उठकर उनसे मेवा खिला देने के लिये कहने लगे। जननी के आनन्द का पार नहीं, नीलमणि अब तक कभी ऐसी इच्छा प्रकट नहीं की थी। जननी की शतशः मनुहारों पर कभी वे एक-दो दाना मुख में लेते थे। साथ ही यह दशा थी कि मृगशावक को निरुद्ध कर लेना सहज है, पर कलेवा के पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र रुक जायँ-यह सम्भव नहीं। अतः आज की चेष्टा तो जननी को परमानन्दसिन्धु में निमग्न कर देती है। सुवर्णथाल में विविध मेवा सजाकर वे बैठ जाती हैं तथा नीलमणि के मुखचन्द्र की शोभा निहारती हुई उन्हें खिलाने लगती हैं। नीलमणि कुछ खाते हैं, कुछ जननी के आँचल पर बिखेर देते हैं। इस प्रकार मानो लीलाशक्ति ने पुरसुन्दरियों के लिये पहले से ही उपयुक्त रंगमन्च की रचना कर रखी है। क्रमशः दल-की-दल वे एकत्र होने लगती हैं। देखते-ही-देखते नन्दप्रांगण भर जाता है। उनके आभूषणों की झनकार से नन्दप्रासाद मुखरित होने लगता है। व्रजरानी परम उल्लास से सबका स्वागत तो अवश्य कर रही हैं, पर उन्हें अत्यन्त विस्मय है कि सर्वथा अनमिन्त्रित इतनी गोप -सुन्दरियाँ अचानक इस समय कैसे एकत्र हुई! गोपसुन्दरियों के लिये एक आश्चर्य की बात यह हुई है कि प्रत्येक को यह अनुभव हो रहा है कि मैं नन्दरानी के अत्यन्त समीप बैठी हूँ। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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