श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
23. उपालम्भ-लीला
फिर तो ग्वालिन उस मुखकमल की शोभा में ऐसी फँसी कि सब भूल गयी-
नन्दरानी को कुछ भी बताये बिना ही वह ‘गुन-गुन’ करती हुई लौट गयी। उसकी दशा देखकर व्रजरानी कल से विस्मय कर रही थीं। अस्तु, इस प्रकार दो दिन उपक्रम होकर भी उलाहने की लीला स्थगित रही। अचिन्त्यलीला-महाशक्ति की इच्छा से ही ऐसा हुआ। क्षणभर में सरे व्रजपुर में यह समाचार फैल गया कि कोई भी गोपी उलाहना देने में सफल नहीं हुई। यशोदारानी के समक्ष श्रीकृष्णचन्द्र की चंचल चेष्टाओं का वर्णन कर कोई भी उन्हें परमानन्द का उपहार समर्पित न कर सकी। जो गयी, वही श्रीकृष्णचन्द्र को देखकर सुध-बुध खो बैठी। अतः संध्या के समय वह स्थिर हुआ- व्रजसुन्दरियों ने गोष्ठ में एकत्र होकर यह निश्चय कर लिया कि ‘कल प्रातःकाल उलाहने का मिस लेकर हम सभी एक साथ नन्दभवन में चलें, वहाँ दिनभर रहकर श्रीकृष्णचन्द्र की मधुर चर्चा का आनन्द व्रजरानी को दें। जिसके यहाँ श्रीकृष्णचन्द्र ने जिस बाल्यमाधुरी का प्रकाश किया है, उसका वर्णन वह नन्दरानी के सामने उपालम्भ के रूप में करे तथा हमारे परम सौभाग्य से यदि उस समय श्रीकृष्णचन्द्र के पद्मविनिन्दित, चंचल नयनों में किंचित भय की छाया पड़ जाय तो उस अभूतपूर्व सौन्दर्य का पानकर हम सभी निहाल हो जायँ।’ यह निश्चय लेकर गोपसुन्दरियाँ अपने-अपने घर को लौटीं। लीलाशक्ति का उद्देश्य पूर्ण होने चला। एक साथ वात्सल्यवी समस्त पुरसुन्दरियों को नन्दभवन में एकत्र करने के लिये ही तो उन्होंने दो दिन उपालम्भ का अभिनय होने नहीं दिया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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