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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
20. मणिस्तम्भ-लीला
(प्रथम नवनीत हरण-लीला)
यशोदारानी हँसी संवरण न कर सकीं-
अपने को भूली-सी ग्वालिन यह दृश्य देख रही थी! इतने में जननी से रूठे हुए श्रीकृष्णचन्द्र वहाँ उठकर उसके समीप आकर खड़े हो गय। ग्वालिन का उनके शरीर से किंचित स्पर्श हो गया। फिर तो वह बाह्यज्ञान शून्य हो गयी। जब चेतना हुई, तब घर के लोगों ने उसे बताया, पूरे आठ पहर वह प्रस्तर-प्रतिमा की भाँति निस्पन्द बैठी थी। किंतु वह नन्दभवन से अपने आवास में कैसे चली आयी, यह प्रश्न किसी के मन में उदय न हुआ; स्वयं ग्वालिन ने भी इसका रहस्य न जाना। जानने का अवकाश ही जो न था। वह तो निरन्तर देख रही थी- व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र दुग्धपान कर रहे हैं एवं वेणी बढ़ी कि नहीं, इसकी परीक्षा कर रहे हैं। जब समाधि से बाहर आयी, तब भी झाँकी नेत्रों के सामने बनी ही थी; चिर अभ्यासवश आधी घड़ी में ही उसने आवश्यक गृहकार्य की व्यवस्था कर दी और नन्दभवन की ओर दौड़ चली। अस्तु- आज तीसरे दिन वह पुनः आयी है तथा देख रही है- विविध पक्वान्न-मिष्ठान्न थालों में सजाकर सामने रखकर व्रजेश्वरी श्रीकृष्णचन्द्र को लाड़ लड़ा रही हैं; किंतु भोजन करने की बात तो दूर, श्रीकृष्णचन्द्र उस ओर ताक भी नहीं रहे हैं, बल्कि खीझकर कह रहे हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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