विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
20. मणिस्तम्भ-लीला
(प्रथम नवनीत हरण-लीला)
व्रजरानी को भी संकोच हुआ कि इसकी सुख समाधि मैंने तोड़ दी-
इसके दूसरे दिन की बात है। ग्वालिन पुनः नन्दभवन में आयी। आकर देखा-व्रजेश्वरी दूध पीने के लिये अपने नीलमणि की मधुर मनुहार कर रही हैं। अग्रज बलराम भी समीप ही बैठे हैं। उन्होंने तो जननी का लाड स्वीकार कर दूध पी लिया, किंतु हठीले श्रीकृष्णचन्द्र नहीं पीते। अन्त में जननी बड़ी ही आकर्षक युक्ति अपने पुत्र के सामने रखती हैं-
तथा इस प्रलोभन में श्रीकृष्णचन्द्र फँस ही जाते हैं। कजरी के दुग्धपान से मेरी वेणी बड़ी लंबी हो जायगी, इस उल्लास से भरकर वे दूध पीने लग जाते हैं; किंतु साथ-साथ अपने घनकृष्ण केशों पर हाथ रखकर देखते जा रहे हैं कि वेणी वास्तव में बढ़ी या नहीं। जब बढ़ती नहीं दीखती, तब उन्हें अपनी जननी की वंचना का भान होता है। उस समय उनके मुखारविन्द पर नाचती हुई विविध भावलहरियों की शोभा देखने ही योग्य है। पराजय का रोष, अब भविष्य में दुग्धपान से विरत होने की भावना, जननी के प्रति अविश्वास, क्षुधा की निवृत्ति, दुग्धपानजन्य स्वाभाविक तृप्ति-ये सब एक साथ उनके कमनीय मुखकमल पर व्यक्त हो रहे हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |