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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
17. कण्व ब्राह्मण पर अद्भुत कृपा
व्रजरानी समझ न सकीं कि नीलमणि क्या कह रहा है। उनकी वृत्ति इस समय केवलमात्र इतना ही ग्रहण कर रही है कि व्रजेश्वर ने नीलमणि को पकड़ लिया, अन्यथा यह रन्धनशाला में प्रवेश कर गया होता। व्रजरानी यह नहीं जानतीं कि व्रजेश के द्वारा रुद्ध हो जाने पर भी उनका नीलमणि तो रन्धनशाला में कभी का पहुँच चुका है, कण्व का भोग स्वीकार कर अपने योगीन्द्रमुनीन्द्र दर्शन से उन्हें कृतार्थ कर रहा है। प्रेमरस भावितमति यशोदारानी यह जान भी नहीं सकतीं; क्योंकि उन्हें पता नहीं कि जो अजन्मा है, पुरुषोत्तम है, जो प्रत्येक कल्प में स्वयं अपने-आपमें अपने-आपका ही सृजन करता है, पालन करता है और फिर संहार कर लेता है, जो मायालेशशून्य-विशुद्ध है, केवल ज्ञानस्वरूप है, अन्तरात्मा के रूप में एकरस अवस्थित है, जो त्रिकाल सत्य है, पूर्ण है, अनादि है, अनन्त है, निर्गुण है, नित्य है, अद्वय है-वह मेरा नीलमणि ही तो है। व्रजेन्द्रगेहिनी नहीं जानतीं कि मेरा नीलमणि ही विराट् पुरुष है, काल है, स्वभाव है, मन है, इन्द्रियाँ हैं, कार्य है, कारण है, पंचभूत है, अहंकार है, त्रिगुण है, ब्रह्माण्डशरीर है, ब्रह्माण्डशरीराभिमानी है, अनन्त स्थावन-जंगम जीव है, ब्रह्मा है, शंकर है, विष्णु है, दक्ष है, नारद है। व्रजरानी कल्पना ही नहीं कर सकतीं कि मेरा नन्हा-सा नीलमणि स्वर्लोकपाल है, खगलोकपाल है, नृलोकपाल है, अतल-वितल-सुतलपाल है, गन्धर्व-विद्याघर-चारण-अधिनायक है, यक्ष-राक्षस-सर्प-नागपति है। यशोदा रानी के मन में कभी यह उदय नहीं होता कि महर्षि, देवर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, दानवेन्द्र, सिद्धेश्वर तथा प्रेत, पिशाच, भूत, कूष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग, विहंगम-सबके नायक के रूप में मेरा नीलमणि ही है। व्रजेन्द्रमहिषी यह धारणा ही नहीं कर सकतीं कि जगत की जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य-तेज-इन्द्रियबल-मनोबल-शरीरबल से युक्त हैं, क्षमा से सम्पन्न है, सौन्दर्य-लज्जा-विभूति से समन्वित हैं, सुन्दर-असुन्दर अद्भुत वर्णवाली हैं-वे सब-की-सब मेरे नीलमणि के ही रूप हैं।[1] उन्हें यह भान ही नहीं होता कि मेरी गोद में रहते हुए ही ठीक उसी क्षण मेरा यह नीलमणि इन अनन्त रूपों में भी अवस्थित है, क्रीड़ा कर रहा है। उनके वात्सल्यरस-सुधासागर के अतल तल में डूबे हुए अपरिसीम ऐश्वर्य के रजःकण कभी ऊपर आते ही नहीं। आते होते तो भले वे जान पातीं कि व्रजेन्द्र द्वारा यह निरोध व्यर्थ है, यहाँ निरुद्ध रहकर भी नीलमणि तो भीतर प्रकट है। वे तो सदा इस भावना से ही भरी रहती हैं कि मेरा नीलमणि मेरा गर्भजात शिशु है, अबोध है। इसीलिये आज वे फूली नहीं समा रही हैं; क्योंकि उनकी दृष्टि में अभी-अभी व्रजेन्द्र ने चंचल नीलमणि को रोक लिया और एक महान अनर्थ होने से रक्षा हो गयी। अस्तु, |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ए एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सजत्यजः। आत्माऽऽत्मन्यात्मनाऽऽत्मानं संयच्छति च पाति च।।
विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक्सम्यगवस्थितम्। सत्यं पूर्णमनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम्।।
आद्योऽवतारः पुरुषः कालः स्वभावः सदसन्मनश्च। द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्रः।।
अहं भवो यज्ञ हमें प्रजेशा दक्षादयो ये भवदादयश्च। सवर्लोकपालाः खगलोकपाला नृलाकपालास्तललोकपालाः।।
गन्धर्वविद्याधरचारणेशा ये यक्षरेक्षोरगनागनाथाः। ये वा ऋषीणामृषभाः पितृणां दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेन्द्राः।
अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूतकूष्माण्डयादोमृगपक्ष्यधीशाः।।
यत्किंच लोके भ्ज्ञगवन्महस्वदोजःसहस्वद्वलवत्क्षमावत्। श्रीहीविभूत्यात्मवदद्भुतार्ण तत्त्वं परं रूपवदस्वरूपम्।।
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