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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
17. कण्व ब्राह्मण पर अद्भुत कृपा
तीसरी गोशाला में पुनः ज्यों-के-त्यों वे सारे उपकरण एकत्र हुए। साथ ही मुख्य द्वार पर स्वयं व्रजेश द्वारी बने। अन्य द्वारों पर तथा प्रत्येक गवाक्ष के समीप एक- एक गोप सजग होकर बैठे कि कहीं से भी श्रीकृष्णचन्द्र प्रवेश न कर सकें। यह प्रबन्ध करके व्रजरानी श्रीकृष्णचन्द्र को लेकर उपनन्द के घर चली गयीं। उपनन्द के घर के द्वार भी बंद कर लिये गये। कण्व ने पायस का निर्माण किया। अर्पण की विधि भी सम्पन्न हुई। पर ज्यों ही कण्व ने भोजन की भावना करना आरम्भ किया कि बस, श्रीकृष्णचन्द्र जननी से हाथ छुड़ाकर भाग खड़े हुए। जननी सारी शक्ति बटोरकर पीछे दौड़ी, पर न जाने कैसे उपनन्द-गृह का रुद्ध द्वार खुल गया और श्रीकृष्णचन्द्र बाहर निकल आये। जननी ने कातर होकर पुकारा-‘नारायण! नारायण!! रक्षा करो!!! प्रभो! प्रभो!! व्रजेश्वर या कोई भी गोप मेरे नीलमणि को गोशाला के द्वार पर ही रोक ले!!!’ यह पुकार लगाती हुई जब वे गोशाला के द्वार पर पहुँचीं, तब देखा-व्रजेश्वर ने नीलमणि को पकड़ लिया है। फिर तो व्रजरानी के आनन्द की सीमा नहीं रही। समीप जाकर उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के दोनों हाथ पकड़ लिये और किंचित रोष में भरकर बोलीं- ‘नीलमणि! अरे, तू इतना दुष्ट कैसे हो गया; प्रातःकाल से एक ब्राह्मण को कष्ट दे रहा है-
किंतु नन्दनन्दन भी इस बार-भयतीत होना तो दूर-रोष में भरकर अविलम्ब बोल उठे-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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