विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
2. मथुरा से श्री वसुदेव का संदेश लेकर दूत का आगमन और नन्द जी के द्वारा उसका सत्कार
दूत बोला-
‘महाराज! नृशंस कंस के जीते-जी निर्बाध कुशल कहाँ! मेरा यह वेश देखकर ही आप अनुमान कर लें। दिन के समय हम लोग नाव से पार नहीं हो सकते, कहीं भी नहीं जा सकते। इसी से रात में यमुना तैरकर इस पार आया हूँ, गीले वस्त्रों से ही सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।’ श्री वसुदेव का समाचार देते हुए दूत ने कहा- “श्रीमन्! लगभग सात पहर पूर्व की बात है। कंस कारागार में हमारी महारानी श्री देवकी जी ने एक कन्या को जन्म दिया। उसी क्षण प्रहरी ने कंस को सूचना दी। वह दुष्ट दौड़ा आ पहुँचा। आह! महाराज्ञी उस सद्योजात कन्या को अपने फटे आँचल में लपेटे हृदय से चिपकाये बैठी थी। कंस को देखकर रो पड़ी। दुःख से अतिशय कातर हो कर कंस का अनुनय-विनय करती हुई बोलीं- ‘मेरे भाई! एक बार मेरे मुख की ओर देख लो, मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ न! मैं तुमसे भीख माँग रही हूँ। यह मेरी अन्तिम संतान है, इसके जीवन की भीख दे दो; हाय! यह तो तुम्हारी पुत्र वधू के समान है, इसे मत मारो। तुमने मेरे बहुत से बच्चे मार डाले, पर उनके लिये मैं कुछ नहीं कहती। तुम्हारा दोष नहीं, मेरा भाग्य ही ऐसा है। अब इस बार दया कर दो, मुझ मन्दभागिनी का सहारा मत छीनो, इस अबला को जीवन दान दो।’ रोती हुई देवकी ने कंस के चरणों पर अपना सिर तक रख दिया। पर उस पाषाण हृदय में दया कहाँ! आँखें तरेर कर देवकी की भत्रसना करता हुआ वह लपका, देवकी की गोद से उसने बालिका को छीन लिया, उस कुसुमसुकुमार सद्योजात बालिका के चरणों को पकड़ कर पास के पत्थर पर पटक ही दिया।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज