श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
67. श्रीकृष्ण को कालिय के द्वारा वेष्टित एवं निश्चेष्ट देखकर मैया और बाबा का तथा अन्य सबका भी ह्नद में प्रवेश करने जाना और बलराम जी का उन्हें ऐसा करने से रोकना और समझाना; श्रीकृष्ण का सबको व्याकुल देखकर करुणावश अपने शरीर को बढ़ा लेना और कालिय का उन्हें बाध्य हो कर छोड़ देना
इतना कहलेने के अनन्तर श्रीबलराम के गम्भीर नेत्रगौर मुखारविन्द के वे सलोने दृग पुनः फिर गये श्रीयशोदा-नन्द आदि की ओर ही। उनका वह श्वेत सुन्दर शरीर झुक-सा पड़ा व्रज दम्पति के चरणों में। और अभी भी वाणी यद्यपि लोकोत्तर तेजोमय पुट से वैसी ही रञ्जित रही, फिर भी नेत्र किंचित अश्रुपूरित हो गये, इसमें संदेह नहीं; एवं गद्गद-कण्ठ से हुए वे इतना और कह गये-
‘व्रजेश! बाबा! व्रजरानी! मैया! अरी रोहिणी मैया! मैं तुम सबों के समुज्ज्वल चरणों की शपथ कर रहा हूँ- श्रीकृष्ण के एक केश तक की लव मात्र क्षति भी न होगी। और गर्गाचार्य भी तो यही कह गये हैं।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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