श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास पृ. 31

श्रीकृष्ण गीतावली

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8. गोपी-विरह
राग कान्हरा

(एक सखी ने देखा कि उसका मन तो श्यामसुन्दर के साथ जाकर उनके रूपसागर में नमक की तरह घुल-मिल गया है, परंतु शरीर को इस प्रकार मिलना उसने सिखाया नहीं। शरीर जल में नमक की भाँति न मिलकर दूध में पानी की ज्यों मिला-इसीलिये अक्रुररूपी हंसने आकर दूध-जल को अलग–अलग कर दिया और वह दूध रूप श्रीकृष्ण को तो निकाल ले गया तथा जल रूपी शरीर यहीं पड़ गया। गोपी यहाँ प्रकारान्तर से मन की महिमा गाती है, क्योंकि मन तो श्यामसुन्दर में तन्मय हो चुका है, शरीर वियोग.दुःख से दुःखी है। अतः वह इसके लिये दुःख प्रकट कर रही है। वह कहती है) अरी माई! इसमें श्यामसुन्दर का कुछ भी दोष नहीं है। हे सजनी! सुन-मैंने जो कुछ पाया है वह सब तो मन की चतुराई का परिणाम है।। 1 ।। इस धोखेबाज मन ने प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलने के समय तो अपने स्वार्थ के लिये सब अंगों में बसकर खूब प्रेम बढ़ाया। जहाँ जिस अंग में जिस प्रकार जैसा बनना चाहिये था, वैसा ही अपने को बनाकर श्रीश्यामसुन्दर के अंग-संग का सारा सुख प्राप्त किया ।। 2 ।। पर अब नन्दलाल के मधुवन (मथुरा) जाने की बात सुनकर इसने शरीर को छोड़ (कर चले) जाने में तनिक भी देर नहीं की। (शरीर को छोड़कर वह श्यामसुन्दर के साथ चला गया और) श्यामसुन्दर के लावण्यमय रूप-सागर में नमक-सा बनकर घुल-मिल गया। फिर लौटने की बात भी नहीं चलायी ।। 3 ।। सखी! इस शरीर में रहकर उस दुष्ट (मन) को जो निधि प्राप्त हुई थी, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, किंतु उसने जरा भी प्रत्युपकार नहीं किया। शरीर को यह नहीं सिखाया कि जैसे मैं (जल में नमक की भाँति) मिलता हूँ, वैसे ही तुम भी मिल जाना ।। 4 ।। स्वंय तो इस प्रकार अपनी जाति छोड़कर (नमक की भाँति अपने स्थूल रूप को त्यागकर रूपसागर में) मिल गया। शरीर (बेचारा इस प्रकार मिलना जानता नहीं था इसलिये वह) दूध में जल की भाँति मिला और जब अक्रूररूपी हंस आया तब वह (शरीर रूपी) जल को अलग करके (श्रीकृष्णरूपी ) दूध को ले गया ।। 5 ।। यों मुझको मन ने त्याग दिया, श्रीकृष्ण ने भी त्याग दिया और प्राण भी विरह की पराकाष्ठा का अनुभव करके चल बसेंगे, पर इस (मन और श्रीकृष्ण से रहित) ख़ाली शरीर पर भी नेत्रों की बड़ी ममता है (जो बार-बार आँसुओं की वर्षा करके विरह की अग्नि में भस्म होने से इसको बचाते रहते हैं) ।। 6 ।।

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संबंधित लेख

श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. बाल-लीला 1
2. गोपी-उपालम्भ 4
3. उलूखल-बन्धन 15
4. इन्द्रकोप-गोवर्धन-धारण 21
5. गोचारण अथवा छाक-लीला 40
6. यमुना तट पर वंशीवादन 24
7. शोभा-वर्णन 5
8. गोपी-विरह 29
9. भक्त-मर्यादा-रक्षण 71
पदों की वर्णानुक्रमणिका
1. अब सब साँची कान्ह तिहारी। 6
2. अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई। 8
3. अब ब्रज बास महरि किमि कीबो। 9
4. आजु उनीदे आए मुरारी। 26
5. आलि! अब कहुँ जनि नेह निहारि। 33
6. आली! टति अनुचित, उतरु न दीजैं। 52
7. ऊधो! या ब्रज की दसा बिचारौ। 40
8. ऊधो जू कह्यो तिहारोह कीबो। 42
9. ऊधो! यह ह्या न कछू कहिबे ही। 47
10. ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै। 53
11. ऊधो! प्रीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुख दीन?। 63
12. ऐसो हौंहुँ जानति भृंग! 62
13. कबहुँ न जात पराए धामहिं। 5
14. कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी। 71
15. करि है हरि बालक की सी केलि। 32
16. कही है भली बात सब के मन मानी। 56
17. कान्ह, अलि, भए नए गुरू ग्यानी। 54
18. काहे को कहत बचन सँवरि। 61
19. कोउ सखि नई बात सुनि आई। 39
20. कौन सुनै अलि की चतुराई। 59
21. गहगह गगन दुंदुभी बाजी। 73
22. गावत गोपात लाल नीकें राग नट हैं। 24
23. गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं। 28
24. गेकुल प्रीति नित नई जानि। 25
25. छपद! सुनहु बर बचन हमारे। 66
26. छाँडो मेरे ललन! ललित लरिकाई। 13
27. छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू 2
28. जब ते ब्रज तजि गये कन्हाई। 35
29. जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें। 10
30. जो पै अलि! अंत इहै करिबो हो। 46
31. जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए। 11
32. टेरीं (कान्ह) गोबर्धन गैया। 22
33. ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ भोरें। 51
34. तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेंरें। 3
35. दीन्ही है मधुप सबहि सिख नीकी। 50
36. देखु सखी हरि बदन इंदु पर। 25
37. नहिं कछु दोष स्याम को माई। 30
38. ब्रज पर घन घमंड करि आए। 21
39. बिछुरत श्रीब्रजराज आजु 29
40. भली कही, आली हमहुँ पहिचाने। 25
41. भूलि न जात हौं काहू के काऊ। 45
42. महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै। 7
43. मधुकर! कहहु कहन जो पारौ। 41
44. मधुकर! कान्ह कही ते न होही। 48
45. मधुप! समुझि देखहु मन माही। 68
46. मधुप! तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है? 49
47. ( माता) लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै। 1
48. मेने जान और कछु न मन गुनिए। 44
49. मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं। 4
50. मोको अब नयन भए रिपु माई! 69
51. ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि, 19
52. लागियै रहति नयननि आगे तें 34
53. लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन। 16
54. सब मिलि साहस करिय सयानी। 55
55. ससि तें सीतल मोकौं लागै माई री! तरनि। 36
56. सो कहौ मधुप! जे मोहन कहि पठई। 43
57. सुनत कुलिस सम बचन तिहाने। 64
58. संतत दुखद सखी! रजनीकर। 37
59. हरि को ललित बदन निहारु 15
60. हा हा री महरि! बारो, कहा रिस बस भई, 17
61. हे हम समाचार सब पाए। 57

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