श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग कान्हरा
(एक सखी ने देखा कि उसका मन तो श्यामसुन्दर के साथ जाकर उनके रूपसागर में नमक की तरह घुल-मिल गया है, परंतु शरीर को इस प्रकार मिलना उसने सिखाया नहीं। शरीर जल में नमक की भाँति न मिलकर दूध में पानी की ज्यों मिला-इसीलिये अक्रुररूपी हंसने आकर दूध-जल को अलग–अलग कर दिया और वह दूध रूप श्रीकृष्ण को तो निकाल ले गया तथा जल रूपी शरीर यहीं पड़ गया। गोपी यहाँ प्रकारान्तर से मन की महिमा गाती है, क्योंकि मन तो श्यामसुन्दर में तन्मय हो चुका है, शरीर वियोग.दुःख से दुःखी है। अतः वह इसके लिये दुःख प्रकट कर रही है। वह कहती है) अरी माई! इसमें श्यामसुन्दर का कुछ भी दोष नहीं है। हे सजनी! सुन-मैंने जो कुछ पाया है वह सब तो मन की चतुराई का परिणाम है।। 1 ।। इस धोखेबाज मन ने प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलने के समय तो अपने स्वार्थ के लिये सब अंगों में बसकर खूब प्रेम बढ़ाया। जहाँ जिस अंग में जिस प्रकार जैसा बनना चाहिये था, वैसा ही अपने को बनाकर श्रीश्यामसुन्दर के अंग-संग का सारा सुख प्राप्त किया ।। 2 ।। पर अब नन्दलाल के मधुवन (मथुरा) जाने की बात सुनकर इसने शरीर को छोड़ (कर चले) जाने में तनिक भी देर नहीं की। (शरीर को छोड़कर वह श्यामसुन्दर के साथ चला गया और) श्यामसुन्दर के लावण्यमय रूप-सागर में नमक-सा बनकर घुल-मिल गया। फिर लौटने की बात भी नहीं चलायी ।। 3 ।। सखी! इस शरीर में रहकर उस दुष्ट (मन) को जो निधि प्राप्त हुई थी, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, किंतु उसने जरा भी प्रत्युपकार नहीं किया। शरीर को यह नहीं सिखाया कि जैसे मैं (जल में नमक की भाँति) मिलता हूँ, वैसे ही तुम भी मिल जाना ।। 4 ।। स्वंय तो इस प्रकार अपनी जाति छोड़कर (नमक की भाँति अपने स्थूल रूप को त्यागकर रूपसागर में) मिल गया। शरीर (बेचारा इस प्रकार मिलना जानता नहीं था इसलिये वह) दूध में जल की भाँति मिला और जब अक्रूररूपी हंस आया तब वह (शरीर रूपी) जल को अलग करके (श्रीकृष्णरूपी ) दूध को ले गया ।। 5 ।। यों मुझको मन ने त्याग दिया, श्रीकृष्ण ने भी त्याग दिया और प्राण भी विरह की पराकाष्ठा का अनुभव करके चल बसेंगे, पर इस (मन और श्रीकृष्ण से रहित) ख़ाली शरीर पर भी नेत्रों की बड़ी ममता है (जो बार-बार आँसुओं की वर्षा करके विरह की अग्नि में भस्म होने से इसको बचाते रहते हैं) ।। 6 ।। |
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