श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव
व्रजरानी ने समझाया, शत-शत मनुहार के द्वारा अपने नीलमणि को आप्यायित करके इस गोदोहन के प्रस्ताव को भुला देने की चेष्टा की, ‘अरे, मेरा नीलमणि तो अभी निरा अबोध शिशु है, किसी गाय ने दुहते समय लात मार दी तो?’ इस भावना से भयभीत हुई जननी ने बहुत कुछ कहा, किंतु हठीले मोहन बात पकड़ लेने पर छोड़ना जानते जो नहीं। बाध्य होकर जननी ने अन्तिम निर्णय यह दिया- ‘मेरे प्राणधन नीलमणि! पहले अच्छी तरह बाबा के पास जाकर दुहना सीख ले, तब मैं दोहनी दूँगी और तू दूध दुह लाना!’ ठीक है, बाबा की शिक्षा भी सही! श्रीकृष्णचन्द्र व्रजेन्द्र के समीप चले आये, उनसे बारम्बार हठ करने लगे-
- बाबा जू! मोहि दुहन सिखाऔ
- गाय एक सूधी सी मिलवौ, हौहुँ दुहौं, बलदाउ दुहाऔ।।
महाराज नन्द ने किसी शुभ मुहूर्त में सिखा देने का वचन दिया। पर इतना धैर्य नन्दलाडिले में कहाँ! वे तो गोदोहन करेंगे और इसी दिन, इसी समय करेंगे। आखिर उपनन्द के परामर्श से यह निश्चित हुआ कि नारायण का स्मरण करके नीलमणि की साध पूरी कर दी जाय। अस्तु, श्रीकृष्णचन्द्र अतिशय उमंग में भरकर जननी के पास दोहनी लेने आये-
- तनक कनक की दोहनी मोहि दै री, मैया।
- तात दुहन सिखवन कह्यौ मोहि धौरी गैया।।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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