बाँसुरी का मन्त्र
गोपिकाओं का भगवत्प्रेम तो जग-जाहिर रहा है, किंतु भगवान श्रीकृष्ण के बाँसुरी-प्रेम ने उनकी नींद चुरा ली थी। आखिर गोपिकाओं ने इसका रहस्य बाँसुरी से पूछा- सुभगे! तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हर समय ओठों पर लगाये रहते हैं और हम सब उनकी कृपादृष्टि पाने के लिये बहुत प्रयास करती हैं, पर सफल नहीं होतीं, जबकि तुम बिना प्रयास किये ही उनके अधरों पर सदा विराजमान रहती हो?’
‘बिना प्रयास किये नहीं गोपियों’, बाँसुरी बोली- ‘मैंने भी प्रयास किये हैं। जानती नहीं हो, मुझे बाँसुरी बनने के लिये अपना मूल अस्तित्व ही खो देना पड़ा है। मेरा जन्म कहाँ से हुआ, कैसे हुआ और किस प्रकार हुआ। धूप-गरमी और बरसात के थपेड़े खाकर मैं बड़ी हुई। फिर मुझे काटा गया, तपाया गया, तब जाकर मैं बाँस से बाँसुरी बनी हूँ। श्रीकृष्ण के अधरों तक पहुँचने में मेरा सारा जीवन कठिन तपस्यामय बीता है। गोपिकाओं को बाँस से बाँसुरी बनने तक की बात समझ में आ गयी। बाँसुरी अपने-आप में ख़ाली थी। उसमें स्वयं को कोई स्वर नहीं गूँजता था। बजाने वाले के ही स्वर गूँजते थे। बाँसुरी को देखकर कोई भी यह नहीं कर सकता था कि यह कभी बाँस रह चुकी है; क्योंकि न तो उसमें कोई गाँठ थी और न ही कोई अवरोध था।
गोपिकाओं को भगवान का प्रेम पाने का अनूठा मन्त्र मिल गया और वे श्रीकृष्ण के प्रेम में ऐसी डूबीं कि सब सुध-बुध खो बैठीं।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 147 |
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