श्री चैतन्योपदिष्ट प्रेम दर्शन

श्री चैतन्योपदिष्ट प्रेम दर्शन

डाँ. आचार्य श्री गौर कृष्ण जी गोस्वामी शास्त्री, काव्य पुराण दर्शन तीर्थ, आयुर्वेद शिरोमणि


जिस समय भारतीय भू भाग का विस्तृत अंश विदेशी आक्रान्ताओं के निरन्तर आक्रमणों से ग्रस्त हो रहा था, धर्मोन्मत्तत्ता दिनों दिन बढ़ती ही जा रही थी, निर्दोष मानवों की हत्याएँ सामान्य बात हो गयी थीं, वर्णाश्रम-व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती जा रही थी, प्रतिष्ठित जन अपमानित हो रहे थे, उस समय प्रेमावतार रूप में भागीरथी के सुरम्य तटस्थ नवद्वीप में श्री चैतन्य देव का आविर्भाव हुआ। उस समय हिन्दू जाति, जातिगत अनेक वर्ग-भेदों में विभाजित थी, उसके एकत्रीकरण के लिये श्री चैतन्य देव ने श्री हरिनाम-कीर्तन की योजना प्रारम्भ की। वे घर-घर जाकर बिना किसी वर्ग भेद के हरि नाम का प्रचार-प्रसार करने लगे। इसके प्रभाव से ब्राह्मण और चाण्डाल एक-दूसरे को गले लगाकर हरि नाम-कीर्तन करने लगे थे। यद्यपि श्री चैतन्य देव चौबीस वर्ष की अल्पावस्था में सांसारिक माया-बन्धन का परित्याग कर पारमार्थिक पथ के पथिक बन गये तो भी उन्होंने अपने लक्ष्य-संकीर्तन के माध्यम से जागतिक जनों को प्रेम-संदेश दिया। जिनके मुख से कभी श्रीकृष्ण नाम नहीं निकला था, उनको भी उन्होंने कृष्ण नाम-सुधा रस पिला कर उन्मत्त कर दिया। नाम के प्रभाव से पर्वतों में स्पन्दन, लताओं में मधु-निर्झरण और हिंसक पशु-पक्षियों में जातिगत वैर भाव समाप्त हो गया तथा वे हरि-हरि कह कर नाचने लगे। यह था श्री चैतन्य का प्रेम-प्रसाद। श्री चैतन्य देव ने साधकों को इस साध्य-सार प्रेम की वास्तविक उपलब्धि के अनेक साधन बतलाने का अनुग्रह किया।

साध्य तत्त्व

साध्य वह तत्त्व है जिसकी प्राप्ति होने के बाद किसी अन्य वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती। साध्यात्मक ज्ञान शास्त्रों के प्रमाण के बिना सर्वथा असम्भव है। साधारणतः जीव की काम्य वस्तु ही साध्य है। अभिलाषा के अनुसार यह पुरुषार्थ-चतुष्टय - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चार भागों में विभाजित है। इनमें से यद्यपि मोक्ष में वास्तविक सुख का अनुभव होता है और दुःख से निवृत्ति भी होती है, तथापि यह भी परम पुरुषार्थ नहीं है। कारण, मोक्ष प्राप्त जीवो के हृदय में भगवद्भजन की उत्कण्ठा दिखायी देती है। अतः भजन द्वारा उत्पन्न भगवत्प्रेम ही साध्य तत्त्व है। जिसके द्वारा नित्य सुख की प्राप्ति तथा दुःखों की निवृत्ति होती है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 264 |

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