सुदर्शन चक्रावतार श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य का भगवत्प्रेम

सुदर्शन चक्रावतार श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य का भगवत्प्रेम

भारतभूमि अखिल ब्रह्माण्डनायक परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान श्रीहरि की अवतारभूमि एवं लीलास्थली है। नित्य-विभूति की तरह लीला-विभूति में भी प्रभु के लोकोत्तर प्रभाव प्रकट होते हैं। युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तर में उचित समय आने पर भक्तों की इच्छा के अनुरूप सद्रक्षण, दुष्टदमन और धर्मस्थापनार्थ भगवान स्वयं भूतल पर अवतीर्ण होते हैं। द्वापरान्त में एतदर्थ श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। अपनी अनन्त शक्तिरूपा गोपियों के माध्यम से उन्होंने उत्तम फलरूपा प्रेमलक्षणा भक्ति की सुमधुर धारा प्रवाहित की। इसी प्रकार दाम, श्रीदाम, सुदाम, वसुदाम, उद्धव और अर्जुनप्रभृति अन्तरंग-बहिरंग पार्षदों द्वारा ज्ञान-वैराग्यसंवलित पराभक्ति (भगवत्प्रेम) का स्वरूप अभिव्यक्त कराकर अनुकरणप्रिय मानव-स्वभाव को प्रेममार्ग में चलने की सरल सरणि प्रदर्शित की।

भगवान का अवतार भक्तों की प्रार्थना पर उन पर अनुग्रह हेतु स्वेच्छा से होता है, परंतु भगवत्पार्षदों का अवतार प्रभु की आज्ञा से होता है। लीलापुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने जब अपली लीला का संवरण अर्थात अवतार-प्रयोजन पूर्ण करके गोलोकधाम प्रयाण किया, तब कालान्तर में कलि के प्रवेश-प्रभाव से भागवतधर्म और सनातन वैदिक परम्परा का हृास एवं अन्यान्य अवैदिक उपासना का विस्तार होने लगा। चारों ओर अशान्ति का वातावरण बढ़ने लगा; जिससे भगवत्प्रेम, भक्ति-मार्ग, सदाचार, सद्व्यवहार आदि में शिथिलता आने लगी। सच्चिदानन्द, अनन्त कल्याणगुणार्णव सर्वेश्वर श्रीकृष्ण के स्वधामगमन के पश्चात कलिकाल के तीव्र वेग से स्वयं द्वारा संस्थापित धर्म -मर्यादाओं का उच्छेद होते देखकर ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थः’ परमेश्वर श्रीहरि ने अपने प्रियतम आयुधवर चक्रराज श्रीसुदर्शन को आज्ञा दी-

सुदर्शन महाबाहो कोटिसूर्यसमप्रभ ।
अज्ञानतिमिरान्धानां विष्णो मार्गं प्रदर्शय ।।

हे महाबाहो! सुदर्शन! आपका तेज करोड़ों सूर्य के तुल्य है। अतः अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे बने हुए अर्थात किंकर्तव्यविमूढ़ मानवों को अर्चिरादि पद्धति द्वारा गोलोक, वैकुण्ठ आदि दिव्य धाम-प्राप्ति का सुगम मार्ग दिखाइये, जो श्रुति-तन्त्रादि शास्त्रों में विष्णुमार्ग के नाम से परिवर्णित है। चक्रराज सुदर्शन भगवान के अन्तरंग पार्षद हैं। जिस प्रकार असुर -संहार आदि में उनकी शक्ति अकुण्ठित तथा अप्रतिहत है, उसी प्रकार भक्तों की रक्षा तथा प्रेमास्पद के प्रेमस्वरूप को प्रकट करने में परम मधुरस्वरूप है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 56 |

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