श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव 12

श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव

गोपेश सुनकर आश्चर्य में भर गये। उन्होंने इस आकस्मिक परिवर्तन का कारण जानना चाहा। फिर तो समस्त सभासद् एक स्वर से पुकार उठे-

भवत्पुत्रः कुत्रचिद्यत्र स्नेहं व्यन्जयति तत्र सर्वत्र चैवं दृश्यते।

‘यह तो जानी हुई बात है, व्रजेश्वर! जहाँ कहीं जिसके प्रति भी आपका पुत्र प्रेम प्रदर्शित करता है, वहाँ-वहाँ सर्वत्र यही परिणाम सामने आता है।’ उस दिन अनेक युक्तियों से गोपमण्डल ने व्रजेश को समझा-बुझाकर नीलसुन्दर पर ही समस्त गोसंरक्षण का भार सौंप देने के लिये उन्हें बाध्य कर दिया। सबकी एक ही राय, एक ही माँग थी-

तस्माद्भवताद्भवतामनुज्ञा।

‘अतएव, अब आपकी आज्ञ हो जाय।’ तथा व्रजराज ने भी वाणी से तो नहीं अपनी हर्षभरी दृष्टि से ही प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। उपनन्द जी तुरंत ही ज्योतिर्विदों का परामर्श ले आये। उन सबों ने भी संनिकट योग का ही आदेश किया- ‘पण्डितजनों के कर्णपुटों के लिये सुखप्रद, मंगलयशपूर्ण, बुधवार श्रवणनक्षत्र-विशिष्ट कार्तिक शुक्लपक्ष की अष्टमी गोपालन के लिये परम सुन्दर मुहूर्त हैं।-

तैरपि बुधश्रवणसुखप्रदमंगलश्रवणसंगतबुधश्रवण-विशिष्टायामबहुलबाहुलाष्टमयां बहुलापालनं बहुलमेतदिष्टमित्यादिष्टम्।

अस्तु, अंशुमाली जब उस दिन प्राची को रंजित करने आये, क्षितिज की ओट से व्रजपुर के आकाश को झाँककर देखने लगे, उस अष्टमी के दिन व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के प्रथमगोचारण-महोत्सव के उपलक्ष्य में वहाँ क्या-क्या हुआ, इसे कौन बताये। वाग्वादिनी स्वयं विथकित जो हो रही हैं। लीलादर्शी की रसना के अन्तराल में हंसवाहिनी के प्राणों की इतनी-सी झंकृति कोई भले ही सुन ले- ‘अरे! इस महा-महोत्सव का वर्णन करना चाहते हो? नहीं, नहीं कर सकोगे। सुनो, एक नहीं, इसके लिये अनेक वक्ता चाहिये। उनमें प्रत्येक वक्ता के ही अयुत-दस सहस्र मुख हों, सभी की आयु सर्वदा बनी रहे, कभी क्षय न हो, वे निरन्तर गाते ही रहें- तब वर्णन करने का विचार करना, भला!’

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