माखन चोरी

माखन चोरी

लीला-दर्शन

उमड़-घुमड़ कर काले मेघ बरस चुके हैं। इन्द्र धनुष उदित हो आया है, मानो वर्षा-सुन्दरी ने व्रजपुर के क्षितिज पर रत्नों की बंदन वार बाँधी हो! ग्रीष्म एवं पावस की संधि पर श्रीकृष्णचन्द्र की मणि स्तम्भ लीला - प्रथम नवनीत हरण-लीला की झाँकी से उन्मादिनी हुई वर्षा-सुन्दरी व्रज में घूम रही है; वन-उपवन, नद-नदी, ह्रद-सरोवर - जहाँ जाती है वहीं हृदय उमड़ पड़ता है, नाचने लगती है, परिधान का कृष्ण वर्ण अञ्चल उड़ने लगता है। नृत्य के आवेश में वह सुदूर आकाश में उड़ गयी, अंशु माली की किरणों ने उसके गले में रत्नों का हार पहना दिया; किंतु अब आभूषण धारण करने की उसे लालसा जो नहीं है। अब तो वह श्रीकृष्ण चन्द्र चरणांकित व्रजपुर का आभूषण स्वयं बन जाना चाहती है, अपने अंग का अणु-अणु व्रजपुर में विलीन कर देना चाहती है; इसीलिये उसने किरणों के उपहार - रत्नों के हार को तोड़ डाला तथा उन सात रंगों के रत्नों के द्वारा व्रजेन्द्र की पुरी को सजाने के उद्देश्य से क्षितिज को छूती हुई बंदनवार बाँध दी। श्रीकृष्ण चन्द्र इसी बंदनवार - आकाश में उदित इन्द्र चाप की ओर देख रहे हैं। नन्दोद्यान की तमाल वेदिका पर अपने सखा वरूथ की गोद में सिर रखकर, अर्धशायित हुए उस रत्न धनुष की शोभा निहार रहे हैं, इन्द्र चाप का सौन्दर्य-वर्णन करके सखाओं को सुना रहे हैं पर स्वयं उनके श्री अंगों का सौन्दर्य कितना मोहक है, इसे वे स्वयं नहीं अनुभव करते। ओह! वह सघन कुन्तल राशि, मुख चन्द्र पर बिखरी हुई अलकावली की लटें, वे विशाल नेत्र, वह मृदु बोलन, वह मधुस्त्रावी अधर युग्म, ललित वदनार विन्द, वे चञ्चल चेष्टाएँ - इन्हें जो निहार सके, उसे ही भान होता है कि इस सौन्दर्य में कितनी मादकता भरी है - ऐसी मादकता जो मन-प्राण-इन्द्रियों को विमोहित कर दे, श्रीकृष्ण चन्द्र के प्रत्यक्ष वर्तमान रहने पर भी उनकी रूप सुधा में नेत्रों के नित्य निमग्न रहने पर भी चित्त हाहाकार कर उठे कि हाय! श्रीकृष्ण चन्द्र के दर्शन मुझे कब होंगे -

चिकुरं बहुलं विरलं भ्रमरं मृदुलं वचनं विपुलं नयनम्।
अधरं मधुरं ललितं वदनं चपलं चरितं च कदानुभवे।।[1]

अस्तु, इसी समय एक व्रज सुन्दरी वहाँ आयी। आकर बोली - ‘नीलमणि! व्रजेश्वरी तुम्हें बुला रही हैं, मेरे साथ घर चलो।’

किंतु श्रीकृष्णचन्द्र को अवकाश कहाँ कि जननी के आह्वान का उत्तर भी दे सकें। वे तो उस सुन्दर धनुष के अरुण, नारंग, पीत, हरित, उज्ज्वल, नील और अरुणिम नील वर्णों का विश्लेषण करके सखाओं को दिखा रहे हैं, रंगों की गणना कर रहे हैं, व्रज सुन्दरी भी मुग्ध भाव से श्रीकृष्णचन्द्र की इस बाल्य माधुरी का रस लेने लगती है। कुछ क्षण पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र उसकी ओर देखते हैं, तब उसे यह ज्ञात होता है कि ‘मैं केवल देखने नहीं, मैं तो बुलाने भी आयी हूँ।’ अतः स्मरण होने पर वह पुनः श्रीकृष्ण चन्द्र से चलने के लिए कहती है। इस बार श्रीकृष्णचन्द्र ने उत्तर दे दिया - ‘अभी तो मैं खेल रहा हूँ, नहीं जाऊँगा।’ [2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीकृष्णकर्णामृतम्
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 266 |

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