माखन चोरी
- करैं हरि ग्वाल संग बिचार।
- चोरि माखन खाहु सब मिलि, करहु बाल-बिहार॥
- यह सुनत सब सखा हरषे, भली कही कन्हाइ।
- हँसि परस्पर देत तारी, सौंह करि नँदराइ॥
- कहाँ तुम यह बुद्धि पाई, स्याम चतुर सुजान।
- सूर प्रभु मिलि ग्वाल-बालक, करत हैं अनुमान॥
अब भुवनभास्कर अस्ताचल की ओर जा रहे थे। व्रजेश्वर अपने नीलमणि को लेने आ गयी थीं। अत: श्रीकृष्णचंद्र नन्दभवन की ओर चल पड़े। जाते समय अपनी मोहिनी चितवन के संकेत से सखाओं को कार्यक्रम की बात बताते गये। भवन में जाकर जननी के परम ललित लाड़ से सिक्त होकर शीघ्र ही वे सो गये। जब दूसरे दिन प्रभात के समय जागे तो सखा मण्डली उन्हें घेरे खड़ी थी।
यशोदा रानी ने विधिवत उबटन-स्नान-श्रृंगार आदि से श्रीकृष्णचन्द्र के श्रीअंगो को सजाय, सखाओं को साथ बैठाकर सब को समान भाव से कलेवा कराया, जल पिलाया, ताम्बूल खिलाया। फिर खेलने जाने की अनुमाति दे दी। तुमुल आनंदनाद करते हुए श्रीकृष्णचंद्र एंव गोपशिशु बाहर की ओर दौड़ पड़े। आगे-आगे श्रीकृष्णचंद्र हैं, उनके पीछे गोपबालक। गोपशिशु नहीं जानते कि कहाँ जाना है, वे तो नंदनंदन का अनुसरण कर रहे हैं; तथा नंदनंदन बिना रुके, सीधे उस गोपसुन्दरी के घर जा रहे हैं, जो उन्हें कल तमालवेदी पर बुलाने गयी थी। देखते-ही-देखते उसके गृह के निकट जा भी पहुँचे।
गोपसुंदरी उस समय दधिमंथन कर रही थी। पर उसे शरीर की सुध-बुध नहीं है- किसी और ही भाव में तन्मय हो रही है-मन्थन क्रिया से यह स्पष्ट झलक रहा था। सखासहित श्यामसुन्दर उपयुक्त अवसर पर ही नवनीतहरण-माखन-चोरी के लिये पधारे हैं तथा गवाक्ष-रंध्र से व्रजसुन्दरी दधिमंथन देख रहे हैं-
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