प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना

प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना

प्रेम भगवान का साक्षात स्वरूप ही है। जिसे विशुद्ध सच्चे प्रेम की प्राप्ति हो गयी, उसे भगवान मिल गये- यह मानना चाहिये। प्रेम न हो तो रूखे-सूखे भगवान भाव जगत की वस्तु रहें ही नहीं।

वास्तव में प्रभु रस रूप हैं। श्रुतियों में भी परम पुरुष की रस रूपता का वर्णन मिलता है- 'रसौ वै स:'।[1] प्रेम का निजी रूप रस स्वरूप परमात्मा ही है। इसलिये जैसे परमात्मा सर्वव्यापक है, वैसे ही प्रेम तत्त्व (आनंदरस) भी सर्वत्र व्याप्त है। हर एक जंतु में तथा हर एक परमाणु में आनंद अथवा रस स्वरूप प्रेम की व्याप्ति है। संसार में बिना प्रेम या आनंद रस के एक-दूसरे से मिलना नहीं हो सकता। स्त्री, पुत्र, मित्र, पिता, भ्राता, पुत्रवधु तथा पशु-पक्षी आदि से भी प्रीति या स्नेह इस प्रेम रस की व्याप्ति के कारण ही है।

कहते हैं कि गुड़ के सम्बंध से नीरस बेसन में मिठास आ जाती है। इसी प्रकार 'स्व' के सम्बंध से अर्थात अपनेपन के सम्बंध से संसार की वस्तुओं में भी प्रीति होती है। संसार की जिस वस्तु में जितना अपनापन होगा, वह वस्तु उतनी ही प्यारी लगेगी। उस में राग होना स्वभाविक है। संसार की वस्तुओं में जहाँ राग है वहाँ द्वेष भी है। जहाँ द्वेष है वहाँ राग है- ये द्वंद्व हैं। द्वंद्व अकेला नहीं रहता। राग्-द्वेष ये दोनों साथ रहते हैं, इसलिये इसका नाम द्वंद्व है, पर एक बात बड़ी विलक्षण है, वह है- रस(प्रेम)-साधना की। रस-साधना का प्रारम्भ भगवान में अनुराग को लेकर ही होता है। एकमात्र भगवान में अनन्य राग होने पर अन्यान्य वस्तुओं में राग का स्वभाविक ही अभाव हो जाता है। उन वस्तुओं में से राग निकल जाने के कारण उनमें कहीं द्वेष भी नहीं रहता। कारण ये राग-द्वेष साथ-साथ ही तो रहते हैं। प्रेमीजन द्वन्द्वों से अपने लिये अपना कोई सम्पर्क नहीं रखकर उन द्वंद्वों के द्वारा अपने प्रियतम को सुख पहुँचाते हैं और प्रियतम को सुख पहुँचाने के जो भी साधन हैं, उनमें से कोई-सा साधन भी त्याज्य नहीं है तथा कोई भी वस्तु हेय नहीं। कारण उन वस्तुओं में कहीं आसक्ति रहती नहीं जो मन को खींच ले, इसलिये रस की साधना में कहीं पर कड़वापन नहीं है। उसका आरम्भ भी होता है माधुर्य को लेकर, भगवान में राग को लेकर। राग बड़ा मीठा होता है, राग का स्वभाव ही मधुरता है और मधुरता आती है अपनेपन से। जहाँ अपनत्व नहीं वहाँ प्रेम नहीं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तै०उप० 2।7।2
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 18 |

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