श्रीकृष्ण प्रेमी रसखान

‘श्रीकृष्ण प्रेमी रसखान’

श्री चन्द्रदेवजी मिश्र, एम.ए., बी.एड.

रसखान सगुण काव्यधारा की कृष्णाश्रयी शाखा के प्रमुख भक्त कवि थे। इनका पूर्व का नाम सैयद इब्राहीम था। इनका जन्म सन 1558 ई. में हुआ था। ये दिल्ली के पठान सरदार थे। एक अनतः प्रेरणा से प्रेरित हो ये दिल्ली छोड़कर व्रज भूमि चले गये। व्रज में लीला विहारी श्रीकृष्ण के लोकरञ्जक चरित्र ने इन्हें अपनी ओर खींच लिया और इनका लौकिक प्रेम श्रीकृष्ण प्रेम में परिवर्तित हो गया। ये व्रज के ही एक श्रीकृष्ण भक्त गुसाई विट्ठल नाथजी के शिष्य हो गये। इनका शेष जीवन वहीं बीता तथा भगवान की ललित लीला के गान में रत रहते हुए इन्होंने सन 1618 ई. में शरीर छोड़ा।

भगवत्प्रेमी कवि रसखान का मन भगवान श्रीकृष्ण के सौन्दर्य एवं उनकी लीला स्थली व्रज भूमि में ही अधिक रमा है। श्रीकृष्ण के रूप-लावण्य, व्रज के लता-गुल्म, करील-कुञ्ज, यमुना तट, वंशी-वट, गोचारण, वंशी वादन और दही-माखन के प्रसंगों का रसखान ने जो प्रेम समय चित्रण किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इनकी कृतियाँ हैं - ‘सुजान रसखान’ और ‘प्रेमवाटिका’। पहली में कवित्त एवं सवैये हैं और दूसरी में दोहे।

रसखान की भाषा व्रजभाषा है, जो अत्यन्त मधुर, सरस और सुबोधगम्य है। उसमें प्रवाहमयता तथा भावानुकूलता है। इनकी रचनाओं में यमक एवं अनुप्रास की छटा भी है। इस प्रकार इनकी रचनाओं में भाव-सौन्दर्य और भाषा-सौन्दर्य दोनों का मणिकाञ्चन-संयोग दर्शनीय है।

प्रेम तत्त्व के विषय में रसखान का अभिमत है कि प्रेम अगम्य, अनुपमेय एवं अपार सागर के समान है। इसके पास जो पहुँच जाता है, वह फिर लौटकर संसार की ओर नहीं आता-
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर-सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान।।

रसखान के अनुसार उस प्रेम में प्रेमी एवं प्रेमास्पद के मन तो एक होते ही हैं, तन भी मिल कर जब एक हो जायँ तब वह प्रेम कहलाता है। अपना तन-मन अपना न रह जाय, श्रीकृष्ण का हो जाय और श्रीकृष्ण का तन-मन अपना हो जाय-[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 417 |

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