प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 3

प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना


वस्तुत: परमेश्वर में प्रेम होना ही विश्व में प्रेम होना है और विश्व के समस्त प्राणियों में प्रेम ही भगवान् में प्रेम है, क्योंकि स्वयं परमात्मा ही सबके आत्म स्वरूप से विराजमान हैं। जो व्यक्ति इस भगवत्प्रेम के रहस्य को भली-भाँति समझ लेता है, उसका सभी प्राणियों के साथ अपनी आत्मा के समान प्रेम हो जाता है। ऐसे प्रेमी की प्रशंसा करते हुए भगवान् ने कहा है-

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ॥[1]

हे अर्जुन! जो योगी अपने ही समान सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दु:ख में भी सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। अपनी सादृश्यता से सम देखने का यही अभिप्राय है कि जैसे मनुष्य अपने सिर, हाथ, पैर और गुदा आदि अगों में भिन्नता होते हुए भी उनमें समान रूप से आत्मभाव रखता है अर्थात सारे अगों में अपनापन समान होने से सुख और दु:ख को समान ही देखता है, वैसे ही सम्पूर्ण भूतों में जो समभाव देखता है; इस प्रकार के समत्वभाव को प्राप्त भक्त का हृदय प्रेम से सरोबर रहता है। उसकी दृष्टि सबके प्रति प्रेम की हो जाति है। उसके हृदय में किसी के साथ भी घृणा और द्वेष का लेश भी नहीं रहता। उसकी दृष्टि में तो सम्पूर्ण संसार एक वासुदेव रूप ही हो जाता है।

इस परमतत्त्व को न जानने के कारण ही प्राय: मनुष्य राग-द्वेष करते हैं तथा परमात्मा को छोड़ कर सांसारिक विषय-भोगों की ओर दौड़ते हैं और बार-बार दु:ख को प्राप्त होते हैं। मनुष्य जो स्त्री-पुत्र, धन आदि पदार्थों में सुख समझ कर प्रेम करते हैं, उन आपातरमणीय विषयों में उन्हें ही जो सुख की प्रतीति होती है, वह केवल भ्रांति से होती है। वास्तव में विषयों में सुख है ही नहीं, परंतु जिस प्रकार सूर्य की किरणों से मरुभूमि में जल के बिना हुए ही उसकी प्रतीति होती है और प्यासे हिरण उसकी ओर दौड़तें हैं तथा अंत में निराश होकर मर जाते हैं, ठीक इसी प्रकार संसारिक मनुष्य संसार के पदार्थों के पीछे सुख की आशा से दौड़ते हुए जीवन के अमूल्य समय को व्यर्थ ही बिता देते हैं और असली नित्य परमात्म-सुख से वञ्चित रह जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 6। 32

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