कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम
श्रीमद्भागवत में अनिर्वचनीय प्रेम के दो चरित्र बड़े ही पुनीत और अलौकिक हैं। प्रथम प्रेम की जीवित प्रतिमा प्रात:स्मरणीया गोपबालाओं का और द्वितीय भगवती श्रीरुक्मिणीजी का। विदर्भ देश के राजा भीष्मक के रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्माली नामक पाँच पुत्र और रुक्मिणी नामक एक सबसे छोटी कन्या थी। रुक्मिणीजी साक्षात रमा थीं, भगवान में उनका चित्त तो स्वाभाविक ही अनुरक्त था, परंतु लीला से नारदादि तत्त्वज्ञानियों के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के माहात्मय, रूप, वीर्य, शोभा और वैभव का अनुपम वर्णन सुनकर अपने मन में उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि श्रीकृष्ण ही मेरे पति हैं।
आरम्भ में साधक को अपना ध्येय निश्चय करने की ही आवश्यकता होती है। ध्येय निश्चित होने के पश्चात् उसकी प्राप्ति के लिये साधन किये जाते हैं। जिसका लक्ष्य ही स्थिर नहीं, वह लक्ष्यवेध कैसे करेगा? भगवती रुक्मिणी ने दृढ़ प्रत्यय कर लिया कि जो कुछ भी हो, चाहे जितना लोभ या भय आये, मुझे तो श्रीकृष्ण को ही अपने जीवनधार-रूप में प्राप्त करना है। भक्त भगवान को जैसे भजता है भगवान भी भक्त को वैसे ही भजते हैं। श्रीरुक्मिणी ने जब श्रीकृष्ण का माहात्मय सुनकर उनका पतिरूप से वरण किया तो उधर भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने भी रुक्मिणी को बुद्धि, लक्षण, उदारता, रूप, शील और गुणों की खान समझकर योग्य अधिकारी मानकर पत्नि रूप में ग्रहण करने का निश्चय कर लिया।
श्रीरुक्मिणीजी के बड़े भाई रुक्मी भगवान श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे, उन्होंने अपने माता-पिता और भाईयों की इच्छा के विपरीत रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण से न कर शिशुपाल से करना चाहा और उन्हीं के इच्छा अनुसार सम्बंध पक्का भी हो गया। जब यह समाचार श्रीरुक्मिणीजी को मिला, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने अपना जीवन पहले से ही भगवान पर न्योछावर कर दिया था। अब इस विपत्ति में पड़कर उन्होंने अपने मन की दशा के सम्बंध में श्रीकृष्ण के प्रति निवेदन करने के अभिप्राय से एक छोटा-सा पत्र लिखा और एक विश्वासी वृद्ध ब्राह्मण को उसे देकर द्वारका भेज दिया। पत्र क्या था! प्रेम-समुद्र के कुछ अमूल्य और अनुपम रत्नो की एक मंजूषा थी। थोड़े से शव्दों में अपना हृदय खोलकर रख दिया गया था। नवधा भक्ति के अंतिम सोपान आत्मनिवेदन का सुंदर स्वरूप उसके अंदर था।
ब्राह्मण देवता द्वारका पहुँचकर श्रीकृष्णचंद्र के द्वार पर उपस्थित हुए। द्वारपाल उन्हें अंदर ले गया। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणदेवता को देखते ही सिंहासन से उतरकर उनकी अभ्यर्थना की। अपने हाथों से उठाकर आसन दिया और आदरपूर्वक बैठाकर भलीभाँति उनकी पूजा की। ब्राह्मण के भोजन-विश्रामादि कर चुकने पर भगवान श्रीकृष्ण उनके पास जाकर बैठ गये और अपने कोमल करकमलों से उनके पैर दबाते-दबाते धीर-भाव से कुशल-समाचार पूछने के बाद ब्राह्मण से बोले-'महाराज! मैं उन सब ब्राह्मणों को बारम्बार मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ जो सदा संतुष्ट रहते हैं, जो दरिद्र होने पर भी सुख से अपना जीवन बिताते हैं, जो साधु हैं, प्राणिमात्र के परम बंधु हैं और जो निरभिमानी तथा शान्त हैं। ब्रह्मन! आप अपने राजा के राज्य में सुख से तो रहते हैं? जिस राजा के राज्य में प्रजा सुखी है, वही राजा मुझ को प्रिय है।' इस प्रकार कुशल-प्रश्न के बहाने से भगवान ने ब्राह्मण और क्षत्रियों के उस धर्म को बतला दिया, जिससे वे भगवान के प्रिय पात्र बन सकते हैं।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 34 |
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