श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप

अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु निम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर श्रीराधासर्वेश्वरशरणदेवार्चा श्री ‘श्रीजी’ महाराज


श्री सुदर्शन चक्रावतार परमाद्याचार्य जगद्गुरु श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य एवं तत्परवर्ती पूर्वाचार्यों तथा सम्प्रदाय के रसिक मूर्द्धन्य महामनीषी संत कवीश्वरों, रसिक महात्माओं ने प्रेम (अनुराग-परा भक्ति) का जो दिव्यतम स्वरूप प्रतिपादित किया है, वह अतीव अनुपम, श्रुति-स्मृति-सूत्र-तन्त्र-पुराणादि निखिल-शास्त्रसम्मत तथा उत्कृष्टतम रसानुरक्ति का द्योतक है। श्रीनिम्बार्क भगवान ने अपने गुरुवर्य देवर्षिप्रवर श्रीनारद जी की सरणि को विशेष रूप से प्रस्फुटित किया है। आचार्य ‘देवर्षि नारद जी ने अपने ‘भक्तिसूत्र’ में अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्।। मूकास्वादनवत्।। प्रकाशते क्वपि पात्रे।। गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्।। तत्प्राप्य तदेवावलोकयति दतेव श्रृणोति तदेव भाषयति तदेव चिन्तयति। त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी।।[1] इन सूत्रों द्वारा परम प्रेमा-भक्ति का जैसा स्वरूप-निरूपण किया, उसी प्रकार आपने भी अपने ‘वेदान्तकामधेनु-दशश्लोकी’ के नवम श्लोक से प्रेमलक्षणा-भक्ति का अद्भुत अनिर्वचनीय स्वरूप प्रतिपादित किया है-

कृपास्य दैन्यादियुजि प्रजायते
यया भवेत् प्रमविशेषलक्षणा।
भक्तिह्र्यनन्याधिपतेर्महात्मनः,
सा चोत्तमा साधनरूपिकाऽपरा।।[2]

परम कृपाधाम सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य कृपा दैन्यादिलक्षणपरिपूर्ण प्रपन्न भक्तों पर होती है और जिस अनिर्वचनीय कृपा से उन कृपार्णव श्रीप्रभु के युगलचरणकमलों में रसमयी भक्ति प्रकट होती है वही फलरूपा एवं प्रेमलक्षणा उत्तमा भक्ति वर्णित है तथा ये प्रेमलक्षणा परा भक्ति अनन्य रसिक-भगवज्जनों के निर्मल सरस अन्तःकरण में स्फुरित होती है। नानाविधजन्मार्जित पुण्य-कर्मों के साधनों द्वारा प्राप्त की जाने वाली साधनरूपा अपरा भक्ति भी निर्दिष्ट हुई है।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूत्र-51-55, 81
  2. वेदान्तकामधेनु-दशश्लोकी, श्लोक 9
  3. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 148 |

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