श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप 8

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप


इसी प्रकार जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर आचार्येवर्य श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज ने अपने ‘श्रीपरशुराम-सागर’ बृहद्ग्रन्थ के ‘दोहावली’ भाग में प्रेम का जो प्रचुर वर्णन किया है, उसके कतिपय उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैं-

बंध्यो प्रेम की डोर हरि, ‘परशुराम’ प्रभु आप।
साधु-साधु मुखि उच्चरै, करै भगत को जाप।।
जन्म मरण ये ‘परशुराँ’, हरि विमुखन के होय।
हरि रस पीवे प्रेम सों, जनमे मरे न सोय।।
प्रेम रस अंतरि बस्यो, प्राण रह्यो बिरमाइ।
लागी प्रीति अपार सों, ‘परसा’ ती न जाइ।।
‘परसा’ संगति साध की, कीयाँ दोष दुराँहिं।
पीजै अमृत प्रेम रस, रहिये हरि सुख माँहिं।।
हरि सनमुख सिर नाइये, जपिये हरि को जाप।
हरि उर तैं न बिसारिये, ‘परसा’ प्रेम मिलाप।।
‘परसा’ हरि की भगति बिन, करिये सोइ हराम।
नर औतार सुफल तबै, भजै प्रेम सों स्याम।।
सर्बस हरि कौं सौंपिये, हरि न मिलै क्यौं आय।
‘परसा’ तन मन प्राण दै, पीजै प्रेम अघाय।।
हरि अमृत रस प्रेम सौं, पीवै जो इकतार।
‘परसा’ चढ़ै न ऊतरे, लागी रहै खुमार।।


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