श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप 5

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप


बसौ मेरे नैनन मे दोउ चंद।
गौरबरनि बृषभानुनंदिनी, स्यामबरन नँदनंद।।
गोलकु रहे लुभाय रूप में, निरषत आनँद-कंद।
जै श्रीभट प्रेमरस-बंधन, क्यों छूटै दृढ़ फंद।।[1]

परस्पर निरषि थकित भये नैन।
प्रेम कला भरिसुर राधे सौं, बोलत अमृत बैन।।
हार उदार निहार तिहारौ, राधे यह मन लैन।
श्रीभट लटक जानि हितकारिनि, भई स्याम सुष दैन।।[2]

श्रीबृन्दाबिपिनेश्वरी, पद-रस सिंधु बिहारी।
रच्यौ परस्पर प्रेम छेम, बाढ़यौ अति भारी।।
अरप्यौ पिय हिय पाय कैं, निज अधर सुधारी।
श्रीभट बड़भागी गोपाल, पीयौ रुचिकारी।।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीयुगलशतक-सिद्धान्त-सुख, दोहा-सं. 53
  2. श्रीयुगलशतक-सिद्धान्त-सुख, दोहा-सं. 55
  3. श्रीयुगलशतक-सिद्धान्त-सुख, दोहा-सं. 77

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