श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप 12

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप


दीजै प्रेम प्रेमनिधि स्याम।
गदगद कंठ नैंन जलधारा, गाऊँ गुन अभिराम।।
या छकि सौं सब छूटि जाय ज्यौं, और सबै कलमष कैं काम।
नागरिया तुव रंग रंग्यो फिरै, इहिं बृन्दावनधाम।।[1]

देहु प्रेम हरि परम उदार।
बिना प्रेम जे भक्ति है नौधा, भई जात ब्यौहार।।
प्रेमहि कैं बस होत स्याम तुम, प्रेमहिं के रिझवार।
प्रेम हाथ अपनै नहिं नागर, ताको कहा बिचार।।[2]


वस्तुतः प्रेम का स्वरूप ही अनिर्वचनीय है, उसका प्रख्यापन वाणी किंवा लेखनी माध्यम नहीं। वह तो यथार्थ में श्रीसर्वेश्वर-कृपैकलभ्य है। इसी दिव्य भगवत्प्रेम का सुदर्शन चक्रावतार आद्याचार्य जगद्गुरु श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य एवं तत्परम्परावर्ती पूर्वाचार्य एवं रसिक परम भागवत महापुरुषों ने विविधरूप से निरूपण किया है, जो सर्वदा रसिक भगवज्जनों को अपने निर्मल अन्तःकरण में अवधारणीय है।

पृष्ठ पर जाएँ

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीनागरीदास-वाणी, छूटक, पद-सं. 124
  2. श्रीनागरीदास-वाणी, छूटक, पद-सं. 152

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः