श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप
अतः जो प्रेमलक्षणा परा भक्ति रसिक साधक के अन्तर्मन में आविर्भूत होती है, वही फलरूपा उत्तमा-भक्ति है। इसी का निर्वचन आद्याचार्यप्रवर निम्बार्क भगवान ने उक्त ‘दशश्लोकी’ में किया है। आपने अपने ‘श्रीप्रातःस्तवराज’ एवं ‘श्रीराधाष्टकस्तोत्र’ में भी वृन्दावननित्यानिकुन्जविहारी युगलकिशोर श्यामाश्याम भगवान श्रीराधाकृष्ण के परस्पर प्रेम-प्राखर्य का जो परम ललित सरस वर्णन किया है, वस्तुतः वह अतीव अनुपम है।
प्रातर्नमामि वृषभानुसुतापदाब्जं
नेत्रालिभिः परिणुतं व्रजसुन्दरीणाम्।
प्रेमातुरेण हरिणा सुविशारदेन
श्रीमद्व्रजेशतनयेन सदाऽभिवन्द्यम्।।[1]
भृंगरूपी व्रजांगनाओं के नयनों द्वारा जिनका स्तवन होता है, ऐसे चतुरशिरोमणि प्रेमसुधारसपूरित व्रजेश्वर श्रीहरि स्वयं जिन प्रेमाल्हादिनी सर्वेश्वरी श्रीराधा प्रिया की अभिवन्दना करते हैं, एवं विध वृषभानुसुता श्रीराधा के उन दिव्य चरणारविन्दों कों मैं प्रभात में अभिनमन करता हूँ।
इसी प्रकार श्रीराधाष्टकस्तोत्र में कहा गया है-
दुराराध्यमाराध्य कृष्णं वशे तं महाप्रेमपूरेण राधाऽभिधाऽभूः।
स्वयं नामकीत्र्या हरौ प्रेम यच्छ प्रपन्नाय मे कृष्णरूपे समक्षम्।।
मुकुन्दस्त्वया प्रेमदोरेण बद्धः पतंगो यथा त्वामनुभ्राम्यमाणः।
उपक्रीडयन् हार्दमेवानुगच्छन् कृपा वर्तते कारयातो मयीष्टिम्।।[2]
वृन्दावनाधीश्वरी श्रीराधे! उन परम दुराराध्य सर्वेश्वर रसब्रह्म श्रीकृष्ण को अपने महाप्रेम-रससुधा से स्वाधीन करने से आप राधारूप से अतिशय सुशोभित हैं। इसी राधा नाम के मंगल-संकीर्तनमात्र से प्रेमस्वरूप श्रीकृष्णदर्शन का दुर्लभ लाभ प्रदान करती हैं। एवं विध परम उदारमयी कृपामयी मुझ प्रपन्न को भी दिव्य दर्शन देकर कृतकृत्य करें।
हे श्रीराधे! आपके अनुगम प्रेम डोर में आबद्ध जगज्जन्मादिहेतु परात्पर परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण आपका पतंगवत अनुगमन करते हैं, ऐसी निकुन्जेश्वरी श्रीराधे! आपकी अहैतु की परम कृपा है, अतः ऐसे प्रेमाबद्ध भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दर्शन कृपा से मुझे अभिप्रेत रसानुराग प्रदान करें।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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