महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम

महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम


कृपामूर्ति महर्षि शाण्डिल्य परम भागवत हैं। भगवान के अनन्य प्रेमी हैं। वे भगवान के सौंदर्य, माधुर्य एवं औदार्य आदि दिव्य स्वरूपों का ध्यान करते रहते हैं। भगवान की मंगलमयी कथाओं का प्रेम-पूर्वक श्रवण तथा प्रेमाभक्ति का दान- ये ही दो उनके मुख्य कार्य रहे हैं। त्याग, वैराग्य, तपस्या तथा स्वाध्याय का आश्रयण और भगवत्प्रेम में निमग्न रहना- यही उनकी मुख्य चर्या रही है। पद्मपुराण में बताया है कि महर्षि शाण्डिल्य भगवान की लीलास्थली परम पावन चित्रकूटधाम में रहते हुए श्रीमद्भागवत की कथाओं का पाठ करते हुए ब्रह्मानंद में निमग्न रहते हैं-

इतिहासमिमं पुण्यं शाण्डिल्योऽपि मुनीश्र्वर:।
पठते चित्रकूटस्थो ब्रह्मानंदपरिप्लुत:॥[1]

पुराणों में आया है कि कश्यपवन्शी महामुनि देवल के पुत्र ही शाण्डिल्य नाम से प्रसिद्ध हुए। धर्मशास्त्रकार शंख और लिखित इन्हीं के पुत्र कहे गये हैं। ये रघुवंशीय नरेश दिलीप के पुरोहित थे। कहीं-कहीं नंद-गोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है। इन्होंने प्रभास क्षेत्र में शिवलिंग स्थापित कर दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण अराधना की थी, फलस्वरूप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्त्वज्ञान,भगवद्भक्ति और अष्टसिद्धियों का वरदान दिया। महर्षि शाण्डिल्य ने मथुराधिपति राजा वज्रबाहु को सम्पूर्ण गर्ग संहिता सुनायी। इसका फल यह हुआ कि राजा को पार्षदों सहित भगवान राधामाधव के प्रत्यक्ष दर्शन हुए। उस समय महर्षि शाण्डिल्य ने भगवान की बहुत ही सुंदर स्तुति की, जो इस प्रकार है-

वैकुण्ठलीलाप्रवरं मनोहरं
नमस्कृतं देवगणै: परं वरम्।
गोपाललीलाभियुतं भजाम्यहं
गोलोकनाथं शिरसा नमाम्यहम्॥[2]

भाव यह है कि प्रभो! आप वैकुण्ठपुरी में सदा लीला में तत्पर रहने वाले हैं। आपका स्वरूप परम मनोहर है। देवगण सदा आपको नमस्कार करते हैं। आप परम श्रेष्ठ हैं। गो-पालन की लीला में आपकी विशेष अभिरुचि रहती है-ऐसे आपका मैं भजन करता हूँ। साथ ही आप गोलोकाधिपति को मैं नमस्कार करता हूँ।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. मा. 5।89
  2. गर्ग.मा. 4।8
  3. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 29 |

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