महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम 2

महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम


एक बार की बात है- ऋषियों ने महर्षि शाण्डिल्य से पूछा- 'भगवन! सब जगह और सब समय में काम देने वाला ऐसा कौन-सा उपाय है, जिसके द्वारा मनुष्य सर्वोत्कृष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है?'

महर्षि शाण्डिल्य ने उत्तर दिया-

क्षेममात्यंतिकं विप्रा हरेर्भजनमेव हि।
देशकालानपेक्षात्र साधनाभावमप्युत॥[1]

अर्थात 'हे विप्रो! मनुष्य-जीवन में सबसे बढ़कर कल्याणकारक भगवद्भजन है। किसी देश या काल की इसमें अपेक्षा नहीं है और इस के लिये साधन जुटाने पड़ते हैं।'

भक्ति: श्रीकृष्णदेवस्य सर्वार्थानामनुत्तमा।
एषा वै चेतस: शुध्दिर्यत: शांतिर्यतोऽभयम्॥[2]

अर्थात 'भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति धर्म, अर्थ, काम, तथा मोक्ष-चारों पुरुषार्थों से भी बढ़कर है। इससे अंत:करण शुद्ध हो जाता है और अंत:करण के शुद्ध होने पर जीव को शांति मिलती है, वह निर्भय हो जाता है।' महर्षि शाण्डिल्य भक्ति शास्त्र के महान आचार्य हैं। जैसे भगवान वेदव्यास ने समस्त श्रुतियों का समंवय करने के लिये ब्रह्मसूत्र का प्रणयन किया, वैसे ही श्रुतियों, श्रीमद्भागवत तथा गीता का तात्पर्यपरक निर्णय करने के लिये इन्होंने एक विलक्षण ग्रंथ का प्रणयन किया, जो 'शाण्डिल्यभक्तिसूत्र' या 'भक्तिमीमांसा' के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्वरूप में जितना ही लघु है, माहात्म्य में उतना ही बृहद है। इसमें छोटे-छोटे एक सौ सूत्र हैं। इन सूत्रों में उन्होंने प्रेम, प्रेमी तथा प्रेमास्पद का जो सुंदर वर्णन किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इनके नाम से एक उपनिषद भी प्राप्त है, जिसमें इन्हें योगज्ञान के विशिष्ट जिज्ञासु एवं आचार्य के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है। इस उपनिषद में प्रेमयोगतत्त्व एवं अध्यात्मसाधना की प्रक्रिया का निरूपण हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शाण्डिल्यसंहिता 1।9
  2. शा० सं० 1।19

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