प्रेमी उद्धव का सख्यभाव

प्रेमी उद्धव का सख्यभाव

प्रेमी उद्धव का सख्यभाव
एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो
गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढ़भावाः।
वान्छन्ति यद् भवभियो मुनयो वयं च
किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारस्य।।[1][2]

उद्धवजी भगवान के सखा-भक्त थे। अक्रूर के साथ जब भगवान व्रज से मथुरा आ गये और कंस को मारकर सब यादवों को सुखी बना दिया, तब भगवान ने एकान्त में अपने प्रिय संखा उद्धव को बुलाकर कहा-‘उद्धव! व्रज की गोपांगनाएँ मेरे वियोग में व्याकुल होंगी, उन्हें जाकर तुम समझा आओ। उन्हें मेरा संदेश सुना आओ कि मैं तुमसे अलग नहीं, सदा तुम्हारे ही साथ हूँ।’ उद्धवजी अपने स्वामी की आज्ञा पाकर नन्द-व्रज में गये। वहाँ चारों ओर से उन्हें व्रजवासियों ने घेर लिया और लगे भाँति-भाँति के प्रश्न करने; कोई आँसू बहाने लगा, कोई मुरली बजाते-बजाते रोने लगा, कोई भगवान का कुशल-समाचार पूछने लगा। उद्धवजी ने सबको यथायोग्य उत्तर दिया और सबको धैर्य बँधाया।

एकान्त में जाकर उन्होंने गोपियों को अपना ज्ञान-संदेश सुनाया। उन्होंने कहा-‘भगवान वासुदेव किसी एक जगह नहीं हैं, वे तो सर्वत्र व्यापक हैं। उनके भगवत-बुद्धि करो, सर्वत्र उन्हें देखो।’ गोपियों ने रोते-रोते कहा-‘उद्धवजी! तुम ठीक कहते हो, किंतु हम गँवारी वनचरी इस गूढ़ ज्ञान को भला कैसे समझ सकती हैं। हम तो उन श्यामसुन्दर की भोली-भाली सूरत पर ही अनुरक्त हैं। उनका वह हास्ययुक्त मुखारविन्द, वह काली-काली घँघराली अलकावली, वह वंशी की मधुर घ्वनि हमें हठात अपनी ओर खींच रही है। वृन्दावन की समस्त भूमि पर उनकी अनन्त स्मृतियाँ अंकित हैं। तिलभर भी जमीन ख़ाली नहीं, जहाँ उनकी कोई मधुर स्मृति न हो। हम इन यमुनापुलिन, वन, पर्वत, वृक्ष और लताओं में उन श्यामसुन्दर को देखती हैं। इन्हें देखकर उनकी स्मृति मूर्तिमान होकर हमारे हृदयपटल पर नाचने लगती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 45 |

  1. श्रीमद्भा. 10/47/58
  2. उद्धवजी कहते हैं-इस पृथ्वी पर जन्म लेना तो इन गोपांगनाओं का ही सार्थक हुआ; क्योंकि इन्हें विश्वात्मा भगवान नन्दनन्दन के प्रति प्रगाढ़ प्रेम है, जिसे पाने के लिये मुनिगढ़ तथा हम भक्तजन सदा इच्छुक बने रहते हैं! जिनको भगवान की कथा में अनुराग हो गया है, उन्हें कुलीनता, द्विजातिसमुचित संस्कार की और बड़े-बड़े यज्ञ-यागों में दीक्षित होने की क्या आवश्यकता है?

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