श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव

श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव

लीला-दर्शन

उस समय की बात है जब गोपेन्द्र नन्द का व्रजपुर बृहद्वन में बसा था। श्रीकृष्णचन्द्र वृन्दाकानन नहीं पधारे थे। कलिन्दकन्या के उस पार ही लीलारस का प्रवाह सीमित था। पुर-सुन्दरियों के प्रांगण में ही वे खेला करते थे। स्वभाव में चंचलता अवश्य आ चुकी थी। अचानक एक दिन जब भुवनभास्कर वृक्षों से ऊपर उठ आये थे, वे खेलते हुए अपने गोष्ठ में जा पहुँचे। वहाँ अभी गोदोहन समाप्त नहीं हुआ था। पंक्तिबद्ध गायों के थनों से क्षरित दुग्ध का ‘घर-घर’ नाद उन्हें आकर्षित करने लगा। कौतूहलभरी दृष्टि से देखते हुए वे दूर-बहुत-दूर तक चले गये। एक वृद्ध गोप गाय दुह रहा था। साथ ही मन्द-मन्द स्वर में उनके ही बालचरित के गीत उसके कण्ठ-निर्झर से झर-से रहे थे, पर अब गाय सहसा चिहुँक उठी। नीलसुन्दर को देखकर हम्बारव करने लग गयी। वृद्ध गोप ने भी पीछे की ओर दृष्टि डाली। नन्दनन्दन उसे भी दिख गये। फिर तो गोदोहन हो सके, यह सम्भव ही कहाँ था। बस, निर्निमेष नयनों से वह नन्दनन्दन की ओर देखता ही रह गया।

यह गोप व्रजराज का बालसखा है। ब्याह इसने किया नहीं। आजीवन नन्दराय के साथ ही इसके दिन बीते तथा व्रजेश ने भी आदर्श प्रेम निभाया। मित्र के रूप में तो क्या, सदा अपने ज्येष्ठ भ्राता के समान ही वे इसे सम्मान का दान करते आये हैं, पर नन्दनन्दन के जन्मदिन से ही यह अर्द्धविक्षिप्त-सा रहने लगा था और व्रजेन्द्र को इसकी स्नेहोचित चिन्ता-सी लग गयी थी। गो-सेवाकार्य तो इसके द्वारा ज्यों-के-त्यों सम्पन्न हो जाते थे। पर इसके अतिरिक्त उसे अपने शरीर का भान नहीं-सा ही है, ऐसा लगता था। अस्तु, नन्दनन्दन उसी के पास आकर बैठ गये। इतना ही नहीं, अपने हस्तकमलों से उसके स्कन्ध एवं चिबुक का स्पर्श कर बोले-‘ताऊ! मुझे भी दुहना सिखा दो।’

वृद्ध के कर्णपुटों में पीयूष की धारा बह चली। श्रीकृष्णचन्द्र के इस मधु भरे कण्ठस्वर का उन्मादी प्रभाव देखने ही योग्य था। दूध से आधी भरी हुई दोहनी हाथों से छूटकर पृथ्वी पर जा गिरी तथा नन्दनन्दन को भुजपाश में बाँधकर वह गोप बेसुध हो गया! और जब चेतना आयी तो कहना कठिन है कि बाह्यदृष्टि में दो ही क्षण बीतने पर भी सचमुच वह कितने समय के पश्चात जागा। उस समय भी उसकी प्रेमविवश आँख झर रही थीं तथा श्रीकृष्णचन्द्र अपनी छोटी-छोटी अँगुलियों से उसके नेत्र पोंछते हुए कह रहे थे- ‘क्यों ताऊ! मुझे नहीं सिखा दोगे?’[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 224 |

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