अक्रूर जी का भगवत्प्रेम

अक्रूर जी का भगवत्प्रेम


देहंभृतामियानर्थो हित्वा दम्भं भियं शुचम्।
सन्देशाद् यो हरेर्लिंगदर्शनश्रवणादिभिः।।[1][2]

भक्ति-शास्त्र में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादंसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन-इस तरह नौ प्रकार की बतायी गयी है। इसके उदाहरण में एक-एक भक्त का नाम लेते हैं- जैसे श्रवण में परीक्षित, कीर्तन में वेदव्यास आदि-आदि। इस तरह वन्दन-भक्तों में अक्रूर जी को बताया गया है। ये भगवान के वन्दन-प्रधान भक्त थे। इनका जन्म यदुवंशी में ही हुआ था। ये वसुदेव जी के कुटुम्ब के नाते से भाई लगते थे। इनके पिता का नाम श्वफल्क था। ये कंस के दरबार के एक दरबारी थे। कंस के अत्याचारों से पीड़ित होकर बहुत-से यदुवंशी इधर-उधर भाग गये थे, किंतु ये जिस-किसी प्रकार कंस के दरबार में ही पड़े हुए थे।?

जब अनेक उपाय करके भी कंस भगवान को नहीं मरवा सका, तब उसने एक चाल चली। उसने एक धनुष यज्ञ रचा और उसमें मल्लों के द्वारा मरवाने के लिये गोकुल से गोप-ग्वालों के सहित श्रीकृष्ण-बलराम को बुलवाया। उन्हें आदरपूर्वक लाने के लिये अक्रूर जी को भेजा गया। कंस की आज्ञा को पाकर अक्रूर जी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। वे भगवान के दर्शनों के लिये बड़े उत्कण्ठित थे, किसी-न-किसी प्रकार वे भगवान के दर्शन करना चाहते थे। भगवान ने स्वतः ही कृपा करके ऐसा संयोग लगा दिया। जीव अपने पुरुषार्थ से प्रभु का दर्शन करना चाहे तो यह उसकी अनधिकार चेष्टा है। कोटि जन्म में भी उतनी पवित्रता, वैसी योग्यता जीव नहीं प्राप्त कर सकता कि जिससे वह परात्पर प्रभु के सामने पुरुषार्थ के द्वारा पहुँच सके। जब से ही अहैतु की कृपा करके दयावश जीव को अपने समीप बुलाना चाहें, तभी वह आ सकता है। प्रभु ने कृपा करके घर बैठे ही अक्रूर जी को बुला लिया।

प्रातःकाल मथुरा से रथ लेकर वे नन्दगाँव भगवान को लेने चले। रास्ते में अनेक प्रकार के मनसूबे बाँधते जाते थे। सोचते थे, उन पीताम्बरधारी बनवारी को मैं इन्हीं चक्षुओं से देखूँगा, उनके सुन्दर मुखारविन्द को, घुँघराली काली-काली लटाओं से युक्त सुकपालों को निहारूँगा। वे जब मुझे अपने सुकोमल कर-कमलों से स्पर्श करेंगे, उस समय मेरे समस्त शरीर में बिजली-सी दौड़ जायगी। वे मुझसे हँस-हँसकर बातें करेंगे। मुझे पास बिठायेंगे। बार-बार प्रेमपूर्वक ‘चाचा’, ‘चाचा’ कहेंगे। मेरे लिये वह कितने सुख की बात होगी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 47 |

  1. श्रीमद्भा. 10।38।27
  2. प्राणियों के देह-धारण करने की सफलता इसी में है कि निर्दम्भ, निर्भय और शोकरहित होकर अक्रूर जी के समान भगवत-चिह्नों के दर्शन तथा उनके गुणों के श्रवणादि के द्वारा अहैतु की भक्ति करे।

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