श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण की प्रेममयी लीला का स्वरूप

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण की प्रेममयी लीला का स्वरूप

डा. श्री जगदीश्वर प्रसादजी, पी-एच. डी., डी. लिट.


परम शक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ परमात्मा की कल्याणकारी और रहस्यमयी लौकिक क्रियाओं का नाम लीला है। गुणातीत होते हुए भी वे गुणों का बन्धन स्वीकार कर सामान्य मनुष्य के समान चेष्टाएँ करते हैं। स्वयं अकर्ता हो कर भी वे कर्ता बन जाते हैं। सृजन, पालन और संहार उनकी लीलाएँ ही हैं।

इन लीलाओं का उद्देश्य होता है - भक्तों पर कृपा, सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का संहार। ये लीलाएँ भक्त हृदय के भक्ति भाव को उद्दीप्त करती हैं। भक्त उनकी लीलाओं का स्मरण कर भक्ति में विभोर हो जाता है और अन्य लोगों में भी भक्ति जाग उठती है। इन लीलाओं के सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत में कहा गया है -

अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः।
भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत्।।[1]

श्रीमद्भागवत की ये लीलाएँ भक्तों पर अनुग्रह के लिये ही हैं।

भगवान के लीलावतारों को दो वर्गों में रखा जा सकता है - रसावतार और मर्यादावतार। श्रीकृष्ण मुख्यतः रसावतार हैं और श्रीमद्भागवत श्रीकृष्ण के इसी रसावतार की विशद व्याख्या है। श्रीकृष्ण स्वयं रस रूप हैं। गोपियाँ जीवात्माओं की प्रतीक हैं जो उनके सांनिध्य के लिये व्याकुल रहती हैं। श्रीकृष्ण अपनी रसमयी लीलाओं से सभी को अपनी ओर खींचते हैं। उनकी मुरली नाद ब्रह्म की प्रतीक है, जिसके नाद का आकर्षण गोपियों के लिये दुर्निवार है। इन सबके माध्यम से श्रीकृष्ण लीलाओं से माधुर्य की ऐसी सृष्टि होती है कि भक्त हृदय आत्म विस्मृत, आत्म विभोर हो जाता है।

श्रीमद्भागवत की लीलाओं में जहाँ नन्द, यशोदा और गोपियों के माध्यम से प्रेम की रसधारा बहती है, वहीं दूसरी ओर उनके अद्भुत और अलौकिक कर्म हैं, जो उनके रक्षण भाव के साथ-साथ उनके ईश्वरत्व का भी परिचय देते चलते हैं। श्रीकृष्ण के सभी कर्म अद्भुत हैं। छोटी अवस्था में ही वे पूतना का वध कर डालते हैं। फिर शकटासुर, वत्सासुर, बकासुर - जैसे राक्षसों की बारी आती है और अन्त में आततायी कंस का वध होता है। इतना ही नहीं, वे कालिय नाग से व्रज को मुक्त करते हैं तथा गोवर्धन धारण कर इन्द्र का गर्वदलन करते हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10।33।37
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 432 |

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