श्रीचैतन्य महाप्रभु का दिव्य प्रेम

श्रीचैतन्य महाप्रभु का दिव्य प्रेम

[प्रेमधन के बिना जीवन व्यर्थ है]

श्रीचैतन्यमहाप्रभु कलियुग में संकीर्तन के प्रवर्तकाचार्य के रूप में माने जाते हैं। इन्होंने नवद्वीप (बंगाल) की पावन धरती पर जन्म ग्रहणकर उसे पवित्र बनाया और पं. श्रीजगन्नाथ मिश्र को पिता तथा परम भाग्यवती श्रीमती शचीदेवी को माता बनने का गौरव प्रदान किया। ये नीम के नीचे प्रादुर्भूत होने से निमाई और गौर अंग (वर्ण) होने से गौरांग कहलाये। ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ की उक्ति इन पर पूर्णरूपेण चरितार्थ हुई है। कहा जाता है कि चैतन्यमहाप्रभु जी एक बार गया में अपने पितरों को पिण्डदान करने हेतु पधारे थे। श्रीविष्णुपाद के दर्शन करने के बाद इनकी भेंट श्रीस्वामी ईश्वरपुरीजी महाराज से हो गयी। लोकमर्यादा को निभाने के निमित्त इन्होंने हठपूर्वक प्रार्थना करके पुरीजी महाराज को विवश करते हुए उनसे श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा ले ली। मन्त्र-दीक्षा प्राप्त करते ही ये मूर्च्छित होकर धराधाम पर धड़ाम से गिर पड़े। साथियों ने मानवीय उपचार करके इन्हें किसी प्रकार चैतन्य किया। बस फिर क्या था, पूर्व से ही हृदय में जमा हुआ प्रेम प्रवाहित होकर फूट पड़ा। उस प्रेम-प्रवाह के फूटते ही इनके अंदर से ऐसी सहज धारा बह निकली, जिसने सम्पूर्ण जगत को प्रेम-प्लावित कर दिया।

सही बात तो यह है कि चैतन्यमहाप्रभु का आविर्भाव वस्तुतः विशुद्ध प्रेम और विश्वबन्धुत्व का द्योतक है। कारण कि इन्होंने राधा के रूप में श्रीकृष्ण-राधा-प्रेमामृत का पान करते हुए हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिक्ख, मुसलमान आदि सभी को एक प्रेमसूत्र में ग्रथितकर विश्व-बन्धुत्व की ज्योति जलायी। महाप्रभु ने बताया कि जो भी नाम हमें प्रिय हो, जो भी हमारा धर्म, सम्प्रदाय और आजीविका हो, उसी में रहकर हमें प्रेम से भगवन्नाम-संकीर्तन करना चाहिये। इतना ही नहीं द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि चाहे जिस किसी भी आध्यात्मिक, दार्शनिक सिद्धान्तवाद को मानने वाले क्यों न हों, वे प्रेम से नाम-संकीर्तन कर सकते हैं। नाम-संकीर्तन करने वालों को वेशभूषा भी नहीं बदलना है और न ही किसी अन्य बाह्याडम्बर की आवश्यकता है। शुद्धभाव से कीर्तनमात्र करना ही परम मंगलकारक है।

चैतन्य महाप्रभु ने प्रेमधर्म के मूलभूत आध्यात्मिक तत्त्वों की व्याख्या की। प्रेम-भक्ति के अंग-रूप में इन्होंने स्वामी श्रीरामानन्द द्वारा प्रदर्शित सेवा और उपासना के पाँच उत्कृष्ट तत्त्वों को स्वीकार किया है-(1) वर्णाश्रमधर्माचारपालन द्वारा भगवद्भक्ति प्राप्त होती है। (2) भगवान के लिये सभी स्वार्थों का त्याग करना आवश्यक है। (3) भगवत्प्रेम द्वारा सर्वधर्मत्याग होता है। (4) ज्ञानात्मिका भक्ति की साधना करनी पड़ती है और (5) स्वाभाविक एवं अखण्डरूप में मन को श्रीकृष्ण की भक्ति में लगाना जीवमात्र का लक्ष्य है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 65 |

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