प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 9

प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना


भगवान को छोड़कर जगत का स्वरूप तमोमय है, अंधकारमय है और भगवान हैं प्रकाशमय। उन में प्रकाश-ही-प्रकाश है। मन में भगवान को प्राप्त करने की जो वृत्ति उत्पन्न होती है, वह वृत्ति सात्त्विक होती है। सात्त्विक वृत्ति प्रकाशरूपा होती है। भगवान तो परम प्रकाशरूप हैं ही, इसलिये इस प्रेम रस की साधना में निरंतर और निरंतर एकमात्र परम प्रकाशस्वरूप भगवान सामने रहते हैं। इसलिये इसका नाम- 'उज्ज्वलरस' अर्थात आनंदरस, मधुरस। 'काम अंधतम निर्मल भास्कर' इस में कामना लेश न होने के कारण कहीं पर भी अंधकार के लिये कोई कल्पना ही नहीं है, दु:ख के लिये कोई कल्पना भी नहीं है। इस प्रेम रस की साधना में आरम्भ से ही भगवान का स्वरूप, भगवान का शब्द, भगवान का स्पर्श, भगवान की गंध और भगवान का रस- ये सब साथ रहते हैं। जहाँ शुरू से भगवत-रस साथ हो वही वास्तव में प्रेम साधना है। प्रियतम प्रभु का स्वरूप प्रेम का ही पुञ्ज है।

प्रेम ही आनंद है और आनंद ही प्रेम है। भगवान सगुण-साकार की उपासना करने वालों के लिये प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण-निराकारी की उपासना करने वालों के लिये आनंदमय बन जाते हैं। वे सच्चिदानंदघन परमात्मा ही भक्तों के प्रेमानंद हैं और वे ही पूर्णब्रह्म परमात्मा मूर्तिमान होकर प्रकट होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा -

हरि व्यापक सर्वत्र सामना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥

हरि सब जगह परिपूर्ण हैं। वे प्रेम से ही प्रकट होते हैं; क्योंकि वे स्वयं प्रेममय हैं।

राधेश्याम खेमका


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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