श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव
इसके दूसरे दिन, जितना शीघ्र सम्भव हो सका, वे उस गोप के समीप पहुँचे। आज उनके साथ बलराम भी थे। आते ही उन्होंने गोप की दोहनी थाम ली और बड़ी उत्सुकता से बोले- ‘चलो, ताऊ! गाय कहाँ है? सिखा दो।’ तथा अग्रज श्रीरोहिणीनन्दन भी अपने अनुज का अनुमोदन करने लगे- ‘हाँ, हाँ, ताऊ! इसे आज अवश्य सिखा दो।’
वृद्ध का रोम-रोम एक अभिनव विशुद्ध स्नेहावेश से पूरित हो उठा। नीलसुन्दर को अपने स्निग्ध हृदय से लगा लिया उसने, मानो वात्सल्यमसृण हृदय की प्रथम भेंट समर्पण कर दी। तदनन्तर उसने उनके हस्तकमलों में एक छोटी-सी दोहनी दे दी। नीलसुन्दर भी उसी गोप का अनुकरण करते हुए दुहने की मुद्रा में गाय के थन के पास जा बैठे। गोप की शिक्षा आरम्भ हुई। श्रीकृष्णचन्द्र की अँगुलियों को अपनी अँगुलियों में धारण कर उसने थन को दबाना सिखाया। थन से दुग्ध तो तभी क्षरित होने लगा था, जिस क्षण श्रीकृष्णचन्द्र गाय के समीप आकर बैठेमात्र थे और अब तो दूध की धारा बड़े वेग से निकलने लगी थी। अवश्य ही वह दोहनी में न गिरकर गिर रही थी कभी तो नीलसुन्दर के उदर-देश पर और कभी पृथ्वी पर। बड़ी तत्परता से वे दोहनी को कभी पृथ्वी पर रख देते, कभी घुटनों में दबा लेते तथा इस चंचल प्रयास में एक-दो धार दोहनी में गिरती, एक-दो नीलसुन्दर के श्रीअंगों का अभिषेक करती तथा एक-दो धरती पर बिखर जा रही थी। फिर भी कुछ दूध तो दोहनी में एकत्र होकर ही रहा। श्रीकृष्णचन्द्र के हर्ष का पार नहीं। दोहनी लेकर वे उठ खड़े हुए। नाच-नाचकर वे अपने दाऊ दादा को यह दिखा रहे थे- ‘देखो, मैं दुहना सीख गया।’
इसके पश्चात क्रमशः दिवस-रजनी का अवसान होकर पुनः प्रभात हुआ। तीस घड़ी के अनन्तर जब श्रीकृष्णचन्द्र की दैनन्दिनी लीला का आरम्भ होने चला, प्रातः समीर का स्पर्श पाकर जननी ने उन्हें जगाया और वे जागे, तब वे जननी का अंचल धारण कर मचल उठे-
- दै मैया री दोहनी, दुहि लाऊँ गैया।
- माखन खाऐं बल भयौ, तोहि नंद दुहैया।।
- सेंदुरि काजरि धूमरी धौरी मेरी गैया।
- दुहि ल्याऊँ तुरतहिं तबै, मोहि कर दै घैया।।
- ग्वालन की सँग दुहत हौं, बूझौ बल भैया।
- सूर निरखि जननी हँसी, तब लेति बलैया।।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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