श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव
जननी का यह उत्तर सुनकर अभिनन्दपत्नी तथा वहाँ उपस्थित अन्य पुरवनिताएँ हँसने लगीं। इधर व्रजेश की दृष्टि भी श्रीकृष्णचन्द्र में आयी हुई इन अस्फुट संकोचवृत्तियों को भाँप लेती है। एक दिन राजसभा में मन्द-मन्द हँसते हुए वे भी सन्नन्द एवं नन्दन से बोले-
मेरे आयुष्मान लघु भ्राताओं! तुम्हारे बड़े भाई का यह पुत्र (श्रीकृष्णचन्द्र) सच पूछो तो- ऐसा ही लगता है कि मानो आज ही उत्पन्न हुआ हो। पर देखो सही, आजकल तुम दोनों के प्रति जैसी उसकी निर्बाध चेष्टाएँ होती हैं, वैसी अब मेरे प्रति नहीं- ऐसा प्रतीत हो रहा है; क्योंकि जब वह मेरे समक्ष आता है, तब उसके नेत्रों में कुछ संकोच भरा होता है, किंचित संकुचित नेत्रों से ही वह मेरी ओर देखता है। पर तुम दोनों के साथ तो वह अभी भी उसी प्रकार मधुर वार्ता-मीठी बातें करता रहता है- मैं ऐसा ही देखता हूँ।’
व्रजेन्द्र की यह उक्ति गोपसदस्यों को हर्षोत्फुल्ल बना देती है। नीलसुन्दर के दोनों पितृव्य (चाचा) तो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं। सब सुन लेने के अनन्तर व्रजराज ने पुनः प्रेममसृण स्वर में कहना आरम्भ किया- ‘भैया सन्नन्द एवं नन्दन! अहो! परसों की ही तो बात है। तुम दोनों जा रहे थे एवं तुम्हारे पीछे थे राम-श्याम। जब मेरे उन दोनों पुत्रों ने यह देख लिया कि अब कान्त है, तब तुमसे प्रार्थना-सी करने लगे। अहा! उनकी सुन्दर आँखों में दीनता भरी थी और वे दोनों बार-बार-प्रातः से आरम्भ कर न जाने कितनी बार तुमसे कुछ निवेदन-सा कर रहे थे। मैं बहुत दूर से चारों और घूम-घूमकर उन दोनों को देख रहा था। वह क्या बात थी, हो! बताओ तो सही-
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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