श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव
एकस्यैकस्य चेद् वक्तुर्वक्त्राणि स्युः सदायुतम्।
तदा तद् वक्तुमिच्छन्तु यद्यायुः सर्वदायुतम्।।
इससे पूर्व नीलसुन्दर की कौमारवयस में शिशिरवसन्त की संधि पर होने वाले वत्सचारण-महोत्सव की शोभा भी निराली ही थी, प्रायः उसके कार्यक्रम का ही अनुसरण आज इस गोचारण-प्रसंग में भी हुआ है। अट्टालिका, गृहतोरण, गृह-द्वार, अलिन्द, वीथी, चतुष्पथ- इन सबका साज-श्रृंगार एवं देवपूजन आदि शास्त्रीय कर्म भी उस पूर्व की अनुक्रमणी के साँचे में ढले हैं; पर आप का रागरंग, पारावारविहीन आनन्दसिन्धु का यह अभूतपर्व उद्वेलन- ओह! किसी के श्रीकृष्णचरणनखचन्द्र से आलोकित दृगों में भले ही यह क्षणभर के लिये झलमल कर उठै, पर वाणी तो इसे व्यक्त करने से रही। केवल दिग्दर्शनमात्र सम्भव है- ‘देखो, श्रीकृष्णचन्द्र ‘गोपाल’ बनने के योग्य नवीन वेषभूषा से सुसज्जित हैं, उनका रक्षा-विधान सम्पन्न हुआ है, ब्राह्मण एवं गुरुजनों के आशीर्वाद से उनके श्रीअंग सिक्त हो चुके हैं; पुण्याहवाचन कर्म भी सांगोपांग समापि हो चुका है।
व्रजरानी, श्रीरोहिणी एवं असंख्य व्रजरामाओं के द्वारा इनका वनगमनोचित नीराजन का मंगलकृत्य भी पूरा हो गया। अरे! सुन लो-असंख्य पुरसुन्दरियों के कण्ठ से निर्गत मंगलगान की सुमधुर ध्वनि; दुन्दुभि, ढक्का, पटह, मृदंग, मुरज, आनक, वंशी, संनहनी, कांस्य आदि वाद्यसमूहों का दिग्दिगन्तव्यापी नाद; आनन्दमत्त गोपें के, गोपबालाओं के नर्तन की झंकार- ‘नन्दकुलचन्द्र की जय! रोहिणीनन्दन बलराम की जय!! राम! राम! श्याम! श्याम! चिरं जीव! चिरं जीव!’ आदि का तुमुल घोष। और अब देखो, अहा वे चले अपने अग्रज बलराम से संवलित श्रीमान गोपमहेन्द्रतनय श्रीकृष्णचन्द्र गायों के पीछे-पीछे! ओह! कैसी अनिर्वचनीय शोभा है!
गोपालोचितनव्यवेषवलनै रक्षाविधानैद्व्रिजा-
द्याशीर्भिः सुदिनादलभ्यरचनैर्व्रज्यार्हनीराजनैः।
संगानन्वितवाद्यनृत्यनिकरैः शश्वज्जयाद्यारवैः
श्रीमान् गोपमहेन्द्रसूनुरगमद्रामेण धेनूरनु।।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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