श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव
तथा लघुभ्राता श्रीनन्दनगोप ने भी व्रजराज की इस जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार किया-
‘यह केवल उस समय की ही बात थोड़े है, यह तो उन दोनों की चिरकालीन लालसा है जो निरन्तर बढ़कर दृढ़-दृढ़तर हो चुकी है। हम दोनों को ही संकोच घेर लेता है और इसीलिये आपको अब तक सूचित न कर सके।’ फिर तो महाराज नन्द ने स्पष्टतया जान लेना चाहा तथा उपयुक्त अवसर देखकर श्रीसन्नन्द ने भी मन्द-मन्द मुसकाकर बात खोल दी-
‘और तो क्या, वे दोनों समस्त गायों की सेवा स्वयं ही करना चाहते हैं।’ परम गम्भीर उपनन्द जी के पूछने पर सन्नन्द ने इतना और कह दिया कि राम-श्याम कहते हैं-
आवयोः प्रथमवयोऽतीतयोस्तातचरणानां स्वयं गोचारणमनाचारतामाचरतीति।
‘अब जब हम दोनों की प्रथम आयु-कौमार का अवसान हो चुका है, तब स्वयं पितृचरणों के द्वारा गोचारण का कार्य सम्पादित होते रहना अनुचित है।’ अपने पुत्रों की यह भावना सुनकर व्रजेश का मुख विस्मय से पूर्ण हो उठता है। वे कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं देते, मौन हो जाते हैं; किंतु उपस्थित गोपसमाज उल्लास में भरकर कहने लग जाता है-
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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