श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव 11

श्रीकृष्ण का प्रथम गोचारण महोत्सव


आखिर सीमा आ गयी, लीलाशक्ति का निर्धारित क्रम सामने जो आ गया। अब तक श्रीकृष्णचन्द्र वन जाते थे उन अपने अधिकृत नवीन गोधन को लेकर ही। उनमें कुछ गोवत्स थे, कुछ प्रथम-प्रसवोन्मुख गौएँ थीं और अधिकांश थीं नवीन-वत्सवती। गोवत्स इसलिये कि समय-समय पर मुक्तस्तन्य वत्स श्रीकृष्णचन्द्र के संरक्षण में सम्मिलित होते आये हैं और वत्सवती तो श्रीकृष्णचन्द्र का संरक्षण परित्याग करने से रहीं। गोपरक्षकों ने अथक चेष्टा की कि भले ही गोष्ठ में इनकी सेवा राम-श्याम कर लें, गोदोहन आदि भी वे ही करें; पर इनका संचारण कार्य तो हम सबों के ही द्वारा हो, ये सब भी वयस्क गोधन की टोली में ही परिगणित हो जायँ। किंतु वे सर्वथा असफल रहे। ये गायें किसी भी परिस्थिति में श्रीकृष्णचन्द्र के बिना वन जाने को प्रस्तुत न हुईं। अतएव सदा से आया हुआ दो विभाग अब तक चलता ही रहा। गोपरक्षक अपने अधिकृत व्रजेश के आपार गोधन का संचारण करते एवं श्रीकृष्णचन्द्र उसी के अंशभूत अपने अधिकृत गो-गोवत्समिश्रित समूह का।

अस्तु, आज सहसा प्रातःकाल एक विशेष घटना घटी। उपक्रम तो कल ही हुआ था, आज सबों ने प्रत्यक्ष देख लिया। वन से लौटते हुए गोचारकवर्ग के दोनों ही दल कल मिल गये। अन्यथा इससे पूर्व रक्षकों का वर्ग तो श्रीकृष्णचन्द्र से पूर्व ही प्रस्थान कर जाता एवं श्रीकृष्णचन्द्र लौटते थे उस वर्ग के गोष्ठ में प्रविष्ट होने के अनन्तर। विगत संध्या के समय गोपरक्षकों ने गायों की उस अभूतपूर्व प्रेमसम्पुटित आर्ति-श्रीकृष्णचन्द्र के प्रति अद्भुत आकर्षण को देखा अवश्य, पर देखकर भी वे रहस्यभेद न कर सके। किंतु आज प्रातःकाल वह स्पष्ट हो गया- इस अपार समस्त गोधनराशि ने वन जाना सर्वथा अस्वीकार कर दिया। वे वन की ओर तभी चलीं जब श्रीकृष्णचन्द्र उन्हें आगे खड़े होकर पुकारने लगे। व्रजेश की राजसभा में आज चर्चा का विषय बस एकमात्र यही था गोपवर्ग ने विस्मय से पूर्ण होकर यह सूचना व्रजेन्द्र को दे दी-

सर्वं गोजातं न तु भवज्जातमन्तरा पदमपि पदः प्रददाति। कथंचित्तेनैवाग्रावस्थितेनाद्य ताः प्रस्थापिताः सन्ति।।

‘व्रजराज! देख लें, समस्त गायों की ही यह दशा हो गयी है कि आपके पुत्र के बिना वे अब एक पद भी वन की ओर अग्रसर नहीं होती। आज जब वह स्वयं उनके आगे जाकर खड़ा हो गया, तब कहीं- उसकी सहायता से ही वे किसी प्रकार वन में भेजी जा सकीं हैं।’


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