प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र
स्वयं देवर्षि नारदजी अपनी स्थिति के विषय में कहते हैं- जब मैं उन परमपावन चरण उदारश्रवा प्रभु के गुणों का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु अविलम्ब मेरे चित्त में बुलाये हुए की भाँति तुरंत प्रकट हो जाते हैं-
आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि ॥[1]
श्रीनारद जी प्रेमी परिव्राजक हैं। उनका काम ही है- अपनी वीणा के मनोहर झंकार के साथ भगवान के गुणों का प्रेम पूर्वक गान करना। उनका नित्य सर्वत्र भ्रमण प्रेम-रस की अविकल धारा को प्रवाहित करने के लिये हुआ करता है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे अवतरित भी होते हैं। वे प्रेम-कीर्तन के आचार्य और भगवत धर्म के प्रधान बारह आचार्यों में हैं। उन्होंने घर-घर एवं जन-जन में प्रेमाभक्ति की स्थापना करने की प्रतिज्ञा की है। निरंतर वे इस भक्ति के प्रचार में ही लगे रहते हैं। देवर्षि नारदजी कृपा मूर्ति हैं, जीवों पर कृपा करने के लिये ये निरंतर त्रिलोकी में घूमते रहते हैं। इनका एक ही व्रत है कि जो भी मिल जाय, उसे चाहे जैसे हो भगवान के श्री चरणों तक पहुँचा दिया जाय। ये सचमुच सब के सच्चे हितैषी हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है।
प्रह्लाद, ध्रुव, अम्बरीष आदि महान भक्तों को इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया और श्रीमद्भागवत तथा वाल्मीकीय रामायण- जैसे दो अनूठे ग्रंथ भी संसार को इन्हीं की कृपा से प्राप्त हुए। शुकदेव-जैसे महान ज्ञानी को भी इन्होंने ही उपदेश दिया। पूर्व जन्म में इन्हें भगवान की जिस मोहिनी छवि का दर्शन प्राप्त हुआ था, उसी को प्राप्त करने की छटपटाहट में देवर्षि नारद ने उस जन्म को भगवत्स्मृति से कृतार्थ कर पुन: इस जन्म को भगवान के नित्य पार्षद के रूप में प्राप्त किया। देवर्षि नारद भगवान् के विशेष कृपा पात्र और लीलासहचर हैं। जब-जब भगवान् का अवतार होता है, ये उनकी प्रेम लीला के लिये भूमि तैयार करते हैं। लीलोपयोगी उपकरणों का संग्रह और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं। इनका मगंलमय जीवन जगत के मंगल के लिये ही है। श्रीराम और श्रीकृष्ण की लीलाओं में तो ये विशेष रूप से सहयोग देते रहे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 1।6 34
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