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प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र
नारदभक्तिसूत्र
मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा॥38॥
परन्तु (प्रेम भक्ति की प्राप्ति का साधन) मुख्यता (प्रेमी) महापुरुषों की कृपा से अथवा भगवत्कृपा के लेश मात्र से होता है।
महत्सगंस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च॥39॥
परंतु महापुरुषों का सगं दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है।
लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव॥40॥
उस (भगवान) की कृपा से ही (महत्पुरुषों का) सगं भी मिलता है।
तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्॥41॥
क्योंकि भगवान में और उनके भक्त में भेद का अभाव है।
तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम्॥42॥
(अतएव) उस (महत्सगं) की ही साधना करो, उसी की साधना करो।
दु:सगं सर्वथैव त्याज्य:॥43॥
दु:सगं: का सर्वथा ही त्याग करना चाहिये।
कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुध्दिनाशसर्वनाशकारणत्वात्॥44॥
क्योंकि वह (दु:सगं) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।
तरगंयिता अपीमे सगांत्समुद्रायंति॥45॥
ये (काम-क्रोधादि) पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आकर भी (दु:सगं से विशाल) समुद्र का आकार धारण कर लेते हैं।
कस्तरति कस्तरति मायाम्? य: सगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति॥46॥
(प्रश्न) कौन करता है? (दुस्तर) माया से कौन तरता है? (उत्तर) जो सब सगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममता रहित होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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