प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र 8

प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र

नारदभक्तिसूत्र

फलरूपत्वात्॥26॥
क्योंकि (वह भक्ति) फलरूपा है।
ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्याप्रियत्वाच्च॥27॥
ईश्वर को भी अभिमान से द्वेषभाव है और दैन्य से प्रियभाव है।
तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके॥28॥
उसका (भक्ति का) साधन ज्ञान ही है, किन्हीं (आचार्यों)- का यह मत है।
अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये॥29॥
दूसरा (आचार्यों)- का मत है कि भक्ति और ज्ञान एक-दूसरे के आश्रित हैं।
स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमारा:॥30॥[1]
ब्रह्मकुमारों के (सनत्कुमारादि और नारद के) मत से भक्ति स्वयं फलरूपा है।
राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात्॥31॥
राजगृह और भोजन आदि में वैसा ही देखा जाता है।
न तेन राजपरितोष: क्षुधाशांतिर्वा॥32॥
न उससे (जान लेने मात्र से) राजा की प्रसन्नता होगी, न क्षुधा मिटेगी।
तस्मात्सैव ग्राह्मा मुमुक्षुभि:॥33॥
अतएव (संसार के बन्धन से) मुक्त होने की इच्छा रखने वालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिये।
तस्या: साधनानि गायंत्याचार्या:॥34॥
आचार्य गण उस भक्त के साधन बतलाते हैं।
तत्तु विषयत्यागात् सगंत्यागाच्च॥35॥
वह (भक्ति-साधन) विषय त्याग और सगं त्याग से सम्पन्न होता है।
अव्यावृतभजनात्।।36॥
अखण्ड भजन से (भक्ति का साधन सम्पन्न होता है)।
लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात्॥37॥
लोक समाज में भी भगवत-गुण-श्रवण और कीर्तन से (भक्ति-साधन समपन्न होता है)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाठभेद 'ब्रह्मकुमार:'

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