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प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र
नारदभक्तिसूत्र
यतस्तदीया:॥73॥
क्योंकि (भक्त सब) उनके (भगवान के) ही हैं।
वादो नावलम्ब्य:॥74॥
(भक्त को) वाद-विवाद नहीं करना चाहिये।
बाहुल्यावकाशादनियतत्त्वाच्च॥75॥
क्योंकि (वाद-विवाद में) बाहुल्यका अवकाश है और वह अनियत है।
भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्वोधककर्माण्यपि करणीयानि॥76॥
(उस प्रेमाभक्ति की प्राप्ति के लिये) भक्ति शास्त्र का मनन करते रहना चाहिये और ऐसे कर्म भी करने चाहिये जिन से भक्ति की वृध्दि हो।
सुखदु:खेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्धमपि व्यर्थं न नेयम्॥77॥
सुख, दु:ख, इच्छा, लोभ आदि का (पूर्ण) त्याग हो जाय, ऐसे काल की बाट देखते हुये आधा क्षण भी (भजन बिना) व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये।
अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपालनीयानि॥78॥
(भक्ति के साधक को) अहिंसा, सत्य, शौच, दया, आस्तिकता आदि आचरणीय सदाचारों का भली-भाँति पालन करना चाहिये।
सर्वदा सर्वभावेन निश्चिंतितैर्भगवानेव भजनीय:॥79॥
सब समय, सर्वभाव से निश्चिन्त होकर (केवल) भगवान का ही भजन करना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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