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प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र
देवर्षि नारदजी बताते हैं कि भगवत्प्रेमी भक्त स्वयं तो तरता है, लोकों को भी तार देता है-'स तरति स तरति स लोकांस्तारयति॥'[1] इतना ही नहीं, भगवान के प्रेमी भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म और शास्त्रों को सत-शास्त्र कर देते हैं- 'तीर्थीकुर्वंति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वंति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वंति शास्त्राणि॥'[2] ऐसे भक्तों को पाकर पितर आनंदित होते हैं,देवता नाचने लगते हैं और यह पृथ्वी सनाथा हो जाती है-'मोदंते पितरो नृत्यंति देवता: सनाथा चेयं भूर्भवति॥'[3] निष्कर्षरूप में देवर्षी नारदजी कहते हैं -'सर्वदा सर्भावेन निश्चिंतितैर्भगवानेव भजनयी:॥'[4] अत: सब समय, सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही भजन करना चाहिये। यहाँ अविकलरूप में यह भक्ति सूत्र भावानुवाद के साथ प्रस्तुत है-
नारदभक्तिसूत्र
अब हम भक्त की व्याख्या करेंगे।
सा त्वस्मिन्[5] परमप्रेमरूपा ॥2॥
वह (भक्ति) ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।
अमृतस्वरूपा च ॥3॥
और अमृतरूपा (भी) है।
यल्लब्ध्वा पुमान् सिध्दो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥4॥
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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