प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र 12

प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र

नारदभक्तिसूत्र

तदर्पिताखिलाचार: सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम्॥65॥
सब आचार भगवान के अर्पण कर चुकने पर यदि काम, क्रोध, अभिमानादि हों तो उन्हें भी उस (भगवान)-के प्रति ही करना चाहिये।
त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकांताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम्॥66॥
तीन (स्वामी, सेवक और सेवा) रूपों को भंगकर नित्य दास भक्ति से या नित्य कांता भक्ति से प्रेम ही करना चाहिये, प्रेम ही करना चाहिये।
भक्ता एकांतिनो मुख्या:॥67॥
एकांत (अनन्य) भक्त ही श्रेष्ठ हैं।
कण्ठावरोधरोमाञ्चाश्रुभि: परस्परं लपमाना: पावयंति कुलानि पृथिवीं च॥68॥
ऐसे अनन्य भक्त कण्ठावरोध, रोमाञ्च और अश्रुयुक्त नेत्र वाले होकर परस्पर सम्भाषण करते हुए अपने कुलों को और पृथ्वी को पवित्र करते हैं।
तीर्थीकुर्वंति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वंति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वंति शास्त्राणि॥69॥
ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों का सुकर्म और शास्त्रों को सत-शास्त्र कर देते हैं।
तन्मया:।।70॥
(क्योंकि) वे तन्मय हैं।
मोदंते पितरो नृत्यंति देवता: सनाथा चेर्य भूर्भवति॥71॥
(ऐसे भक्तों का आविर्भाव देखकर) पितर प्रमुदित होते हैं देवता नाचने लगते हैं और यह पृथ्वी सनाथा हो जाती है।
नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेद:॥72॥
उनमें (भक्तों में) जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादि का भेद नहीं है।


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