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प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र
नारदभक्तिसूत्र
लोक वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥11॥
लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान के अनुकूल कर्म करना ही उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता है।
भवतु निश्चयदाढर्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम्॥12॥
(विधिनिषेध से अतीत अलौकिक प्रेम-प्राप्ति करने का मन में) दृढ़ निश्चय हो जाने के बाद भी शास्त्र की रक्षा करनी चाहिये। अर्थात भगवदनुकूल शास्त्रोक्त कर्म करने चाहिये।
अन्यथा पातित्याशकंया॥13॥
नहीं गिर जाने की सम्भावना है।
लोकोऽपि तावदेव किंतु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीरधारणावधि॥14॥
लौकिक कर्मों को भी तब तक (बाह्यज्ञान रहने तक) विधिपूर्वक करना चाहिये, पर भोजनादि कार्य जब तक शरीर रहेगा तब तक होते रहेंगे।
तल्लक्षणानि वाच्यंते नानामतभेदात्॥15॥
अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताये जाते हैं।
पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्य:॥16॥
पराशरनंदन श्रीव्यासजी के मतानुसार भगवान की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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