प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र 10

प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र

नारदभक्तिसूत्र

यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकेबंधमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति॥47॥
जो निर्जन स्थान में निवास करता है, जो लौकिक बंधनों को तोड़ डालता है, जो तीनों गुणों से परे हो जाता है और जो योग तथा क्षेम का परित्याग कर देता है।
य: कर्मफलं त्यजति कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वंद्वो भवति॥48॥
जो कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का भी त्याग करता है और तब सब कुछ त्याग कर जो निर्द्वंद्व हो जाता है।
वेदानापि संन्यस्यति केवलमविच्छिन्ननुरागं लभते॥49॥
जो वेदों का भी भलीभाँति परित्याग कर देता है और जो अखण्ड असीम भगवत्प्रेम प्राप्त कर लेता है।
स तरति स तरति लोकांस्तारयति ॥50॥
वह तरता है, वह तरता है,वह लोकों को तार देता है।
अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥51॥
प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है।
मूकास्वादनवत् ।।52॥
गूँगे के स्वाद लेने की तरह।
प्रकाशते[1] व्कापि पात्रे॥53॥
किसी बिरले योग्य पात्र में (प्रेमी भक्त में) ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है।
गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्॥54॥
यह प्रेम गुणरहित है, कामनारहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, विच्छेदरहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभव रूप है।
तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव श्रृणोति तदेव भाषयति[2] तदेव चिंतयति॥55॥
उस प्रेम को पाकर प्रेमी उस प्रेम को ही देखता है, प्रेम को ही सुनता है, उस प्रेम का ही वर्णन करता है और उस प्रेम का ही चिंतन करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाठभेद 'प्रकाश्यते'
  2. किसी-किसी प्रति में 'तदेव भाषयति' नहीं है।

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