पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. वस्त्रावतार
‘अभी महारानी द्रौपदी जैसी सम्पत्ति है आपके समीप।' शकुनि ने कुटिल हंसी के साथ कहा – ‘उनके बदले हमारी ओर से सम्पूर्ण राज्य।' दुर्योधन, कर्ण आदि सबने इसका समर्थन किया। आवेश में युधिष्ठिर ने यह दाव भी लगाया और हार गये। अब दुर्योधन ने विदुर से कहा – ‘द्रौपदी को यहाँ ले आइये। वह अब कौरवों की दासी होकर रहेगी।' विदुर ने दुर्योधन को धिक्कारा। उसे इस प्रकार की कोई कुचेष्टा करने से रोका किन्तु कर्ण ने दुर्योधन को उकसाया। द्रौपदी ने अपने स्वयंवर के समय कर्ण के धनुष उठाने पर कह दिया था – ‘मैं सूतपुत्र का वरण नहीं करुँगी।' यह अपमान कर्ण के हृदय में शूल बना था। वह उसका आज बदला लेने पर उतारू था और दुर्योधन को तो उस दिन भीमसेन के व्यंग की अपेक्षा द्रौपदी का खिलखिलाकर हँसना ही अधिक अपमानकारक लगा था। उसके सिर पर भी इस समय यही भूत चढ़ा था। विदुर नहीं गये तो प्रातकामी को दुर्योधन ने भेजा किन्तु वह लौट आया और दुर्योधन की उपेक्षा करके वह सेवक सभासदों से ही पूछने लगा – ‘साम्राज्ञी द्रौपदी एक वस्त्रा हैं। वे इस अवस्था में यहाँ गुरुजनों के सम्मुख आना नहीं चाहतीं। वे पूछती हैं कि धर्मराज ने स्वयं को हार जाने के पश्चात उन्हें दांव पर लगाया, ऐसा करने का उन्हें अधिकार था या नहीं ?’ दुर्योधन इससे जल गया। उसने दु:शासन से कहा- ‘द्रौपदी अब दासी है। उसे यहा पकड़ लाओ। उसे जो कुछ पूछना हो, यहाँ आकर पूछे।' दु:शासन बड़े भाई का आदेश पाकर गया और द्रौपदी के जो केश कुछ ही दिन पूर्व राजसूय यज्ञ के अन्त में मन्त्रपूत जल से सिंञ्चित हुए थे उन्हीं केशों को पकड़कर उसे घसीटते हुए राजसमभा में ले आया। कुरुकुल की महारानी, धृतराष्ट्र की ज्येष्ठा पुत्रवधू, पराक्रमी पाण्डवों की वह मानिनी पत्नी इस प्रकार केश पकड़कर घसीटकर सभा-भवन में लायी गयी। भीमसेन के नेत्र क्रोध से जल रहे थे किन्तु वे विवश थे। उनके सब भाई सिर झुकाये बैठे थे। भीष्म, द्रोण, विदुर आदि सबने सिर झुका रखा था। द्रौपदी ने सबकी ओर देखा। उसे बड़ी आशा थी कि ये वयोवृद्ध प्रतापी लोग उसे बचा लेंगे। उसके पति कुछ करेंगे। उसने कातर कण्ठ से पूछा – ‘मैं धर्मपूर्वक हारी गयी कि नहीं, यह जानना चाहती हूँ?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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