पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. वस्त्रावतार
केवल विकर्ण ने द्रौपदी के पक्ष में बोलने का साहस किया किन्तु उसे कर्ण ने डाँट दिया। वह दुर्योधन का छोटा भाई था। उसकी वहाँ क्या गणना थी। कर्ण ने सबके सम्मुख कहा – ‘एक पुरुष की पत्नी सती होती है। यह पाँच पुरुषों की स्त्री पण्या है। इसका क्या सम्मान।' दुर्योधन, शकुनि, कर्ण, सबके सब बहुत अधिक उत्तेजित थे। उस समय वे किसी का भी अपमान करने में नहीं हिचकेंगे, यह सबको स्पष्ट लग रहा था। द्रौपदी का प्रश्न भी कम जटिल नहीं था। युधिष्ठिर स्वयं को हार चुके थे, तब उनका स्वत्व पत्नी पर रहा था या नहीं ? इसका उत्तर इतना सरल तो नहीं है। कर्ण का कहना था – ‘पत्नी पर पति का सदा स्वत्व होता है।’ इसे भी एकदम अस्वीकार नहीं किया जा सकता था और द्रौपदी के पक्ष में भी तर्क था। प्रश्न की जटिलता और अपने अपमान का भय- सबने सिर झुका लिया था। कोई एक शब्द भी नहीं बोला। इसी समय दुर्योधन ने दु:शासन से कहा – ‘पाण्डवों और द्रौपदी के वस्त्र उतार लो।’ पाण्डवों ने अपने आभूषण पहले ही द्यूत के दाव पर उतारकर लगा दिये थे। अपने ऊपर के सब वस्त्र उतार दिये। द्रौपदी रजस्वला होने के कारण निराभरण थी और एकमात्र साड़ी उसने पहिन रखी थी। दुर्योधन ने उसका वह वस्त्र भी उतार लेने को कहा और अपनी नंगी जंघा दिखाकर संकेत किया उसे वहाँ बैठा दिया जाय। अन्धे के पुत्र तो अन्धे ही हैं। दुर्योधन ने विषभरा व्यंग किया - ‘इनके मध्य पांचाली को नंगा होने में क्या हिचक है।’ कातर दृष्टि से द्रौपदी ने सबकी और देखा। कोई बोलेगा ? कोई रोकेगा इस अन्याय को ? उसके अमित पराक्रमी पति ? उसके स्वसुर के समान विदुर और परम तेजस्वी पितामह ? आचार्य द्रोण या कृप ? कोई नहीं। किसी ने सिर नहीं उठाया। जिधर भी द्रौपदी ने देखा किसी की दृष्टि उठी ही नहीं। कहीं से कोर्इ आशा नहीं। भरी सभा में दुष्ट दु:शासन ने साड़ी पकड़ ली और खींचने लगा। एक कुलवधु, साम्राज्ञी सभा के बीच नंगी की जा रही थी। कोई सहायक नहीं। कहीं से आशा की क्षीण रेखा तक नहीं। श्रीकृष्ण शाल्व, दन्तवक्र, विदूरथ को मारकर द्वारिका के राजसदन में पहुँचे थे। स्नान करके सन्ध्या की ओर भोजन करने बैठे महारानी रुक्मिणी के सदन में। सहसा उनके कमल लोचन भर आये। हाथ ग्रास उठाने में असमर्थ हो गये। ‘आपको यह क्या हो रहा है ? इतने व्याकुल क्यों हो रहे हैं आप ?’ महारानी रुक्मिणी ने पूछा किन्तु उत्तर नहीं मिला। उन्होंने समझ लिया कि उनके स्वामी किसी अपने जन पर आये अचानक संकट से चिन्तित हैं किन्तु तब गरुड़ तो प्रांगण में ही है। इन्हें प्रस्थान करने में क्या बाधा है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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