पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. खाण्डवदाह
नन्दिघोष रथ अन्धड़ के समान वन के चारों ओर घूम रहा था जो प्राणी वन की ज्वाला से घबड़ाकर भागने का भी प्रयत्न करते थे, वे पार्थ के बाण से बिद्ध होकर अथवा श्रीकृष्ण के चक्र से कटकर अग्नि की आहुत बन जाते थे। प्राणी का यह दुर्भाग्य नहीं है कि उस पर आपत्तियाँ आती है। विपत्ति तो भगवान् का वरदान है जो पूर्वकृत पापों को घटाती तो हैं ही वर्तमान को भी उज्जवल कर जाती है। अनेक दुर्बलताओं को दग्ध करके शक्ति सहन क्षमता तथा सावधानी दे जाती हैं। प्राणी का दुर्भाग्य यह है कि विपत्ति आने पर– दारुण विपत्ति आने पर भी उसे अनाथनाथ, अनन्त दयासिन्धु, अशरण शरण स्मरण नहीं आते और वह छटपटाता है, हारता है, मरता है; किन्तु जो सदा के उसके अपने हैं, सहायता को नित्य समुत्सुक हैं, समर्थ हैं, समीप हैं, उन्हें पुकारता नहीं। उन्हें निराश कर देता है। और विपत्ति से हार जाता है। क्रौञ्च पक्षियों ने– उन शावकों ने भी चञ्चु खोले और उनके प्राणों ने पुकारा- ‘गरुड़वाहन ! आर्तिनाशन ! रक्षा करो नाथ !’ सहसा श्रीकृष्णचन्द्र ने नेत्र उठाये और अग्नि देव की ज्वालाओं ने सरोवर तट के उस स्थान की ओर बढ़ना त्यागकर दिशा बदल दी। उधर फिर कोई एक चिनगारी भी उड़कर नहीं गिरी। ये चारों पक्षी खाण्डव के इस महादाह में सुरक्षित रह गये। सुरक्षित बचने का प्रयत्न किया नागराज तक्षक के पुत्र अश्वसेन ने किन्तु अर्जुन ने बाणों के व्यूह से निकल जाने का मार्ग उसे नहीं मिला। उसकी माता ने पुत्र को बचाने के लिए उसे मुख की ओर से निगलना प्रारम्भ किया; किन्तु पूरा निगलने से पूर्व ही अग्नि की ज्वाला से व्याकुल होकर भागी। अर्जुन ने एक बाण मारकर उसका फल विद्ध कर दिया इससे वह माता के शरीर से निकल गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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