पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. खाण्डवदाह
देवराज इन्द्र इसे देख रहे थे। उन्होंने प्रबलतम वायु वेग और वर्षा की बौछार की। एक क्षण को अर्जुन विचलित हो उठे। इसका लाभ उठाकर अश्वसेन निकल भागा। सुरक्षित निकल भागने का प्रयत्न किया दानवेन्द्र मय ने भी। वे उन दिनों तलातल से पृथ्वी पर आकर खाण्डव वन में रहने लगे थे; क्योंकि कर्म लोक तो धरा ही है। मय भागे तो अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला पीछे दौड़ी। उनको भागते देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने अर्जुन की ओर देखा और चक्र उठा लिया। दानवेन्द्र मय अमर हैं। भगवान् शंकर के परम प्रिय भक्त हैं। उनका वध किया नहीं जा सकता था; किन्तु धनञ्जय किसी को निकलकर भागने देना नहीं चाहते थे और उनका कोई दिव्यास्त्र मायावियों के उन परमाचार्य को रोकने में समर्थ नहीं था। मय के सम्मुख शस्त्र उठाकर अर्जुन को पराभव प्राप्य हो- श्रीकृष्ण की उपस्थिति में ही सखा हार जाय, यह वे केशव कैसे सह सकते थे। अत: उन्होंने चक्र उठाया। ‘डरो मत !’ अर्जुन ने शरणागत की पुकार सुनी और अभय दे दिया- ‘इन पुरुषोत्तम के पदों में आश्रय लेने वाले के लिए कहीं कोई भय नहीं है। इनके समीप आ जाओ !’ भक्त ने अभय दे दिया तो भगवान् ने उठे चक्र की ज्वाला स्वयं शान्त हो गयी। मय नन्दिघोष रथ के पृष्ठ-रक्षक बनकर चलने लगे। देवराज इन्द्र के साथ दूसरे देवता भी आये थे और सब प्रयत्न कर रहे थे; किन्तु अर्जुन की बाण वृष्टि और श्रीकृष्णचन्द्र के चक्र के सम्मुख सबके प्रयत्न व्यर्थ हो रहे थे। वाणों का वह विशाल वितान कहीं से थोड़ा सा भी टूट नहीं रहा था। इन्द्र ने क्रोध में आकर मन्दराचल का शिखर उठाकर अर्जुन के ऊपर पटक दिया; किन्तु वह पार्थ के बाण से आकाश में ही छोटे-छोटे टुकड़े बनकर बिखर गया। देवेन्द्र ने वारुणास्त्र का प्रयोग करके वर्षा प्रबल की तो अर्जुन ने वायव्यास्त्र का प्रयोग कर दिया। रहे-सहे बादल भी छिन्न-भिन्न होकर दिशाओं में बिखर गये। अत्यन्त आवेश में आकर देवराज ने अपना अमोघ वज्र उठाया- मैं इन दोनों को एक साथ मार दूँगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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